Friday, 13 December 2013

राख में दबी चिनगारी-किस्त दो



इस स्तंभ की पहली किस्त में आप पढ़ चुके हैं - डा. सुदर्शन प्रियदर्शिनी का आत्मकथ्य - ‘‘हम कभी बीतते नहीं हैं’’ और कहानी -‘‘देशांतर ’’ अब पढ़ें - बाल कथाएं और रेडियो नाटकों के लिये चर्चित -छठे और सातवें दशक की लेखिका शीला इंद्र - जो पिछले दस वर्षों से फिर साहित्यिक परिदृश्य पर कहानियां और संस्मरण रचती हुई दम-ख़म के साथ उपस्थित हैं । प्रस्तुत है - शीला इंद्र का आत्मकथ्य - ‘‘रचनात्मकता का अगिनपाखी ’’ और उनकी ताज़ा कहानी - मोहरा !

 "हर स्त्री एक जलता हुआ सवाल होती है!"

                                                        0  सुधा अरोड़ा 

आज से तीस चालीस साल पहले साहित्य का एक अलग ही परिदृश्य हमारे सामने था । रचनाकार अपने लेखन पर फोकस करते थे । न किताबों के लोकार्पण हुआ करते थे , न समीक्षकों आलोचकों की अभ्यर्थना कि वे रचना पर लिखें । अक्सर समीक्षाएं अपरिचित नामों द्वारा की जाती थीं । आज सारे उपभोक्तावादी हथकंडों सहित साहित्य का बाज़ार खड़ा हो गया है । इतना दुर्भाग्यशाली कालखंड इससे पहले शायद ही कभी रहा हो । आज अपनी रचनात्मकता को लेखक एक अद्वितीय बहुराष्ट्रीय ब्रांड के उत्पाद की तरह आक्रामकता के साथ प्रचारित और प्रसारित कर रहा है । पचास साल की उम्र वाले रचनाकार भी युवा की श्रेणी में आ रहे हैं । इन तथाकथित ‘युवा’ रचनाकारों की पर्याप्त रचनाएं आने से पहले ही उन पर एकाग्र विशेषांक निकाले जा रहे हैं, वरिष्ठ से वरिष्ठ आलोचक उनकी तारीफ में कशीदे काढ़ने को तैयार खड़े हैं, उन्हें असमय पेडेस्टल पर खड़ा किया जा रहा है,  उनकी रचनायें पाठ्यक्रम में लगाई जा रही हैं । तिल में ताड़ के जींस डालकर उसे विराट बनाने की जो प्रयोगशाला हिंदी आलोचना में चल रही है , वह भविष्य में साहित्य के स्वत्व या कहना चाहिये , डी. एन. ए. को ही बदल देगी । इसके अपसगुनी लक्षण प्रकट भी हो रहे हैं । यह एक अशुभ की सूचना है । लेखन की थोड़ी पूंजी का प्रवाह इतना बढ गया है कि उसके ब्याज पर ही अपना अपना बाज़ार चलाया जा रहा है । पुराने के दमन और दफ़न की दुरभिसंधियां चल रही हैं और महत्वपूर्ण रचनाओं को खारिज कर, अप्रासंगिक बनाने का जो कारोबार चल रहा है, वह न केवल वर्तमान पीढ़ी की अनपढ़ता की तरफ संकेत करता है बल्कि इसके बरक्स नयों का ऐसा महा- मस्ताभिषेक होने लगा है कि वे साहित्य के विराटावतार घोषित हो रहे हैं और अपने अंकुवे को प्रसिद्ध की तेज धूप में झुलसने की नियति को स्वीकार कर रहे हैं ।  कुरुक्षेत्र में आलोचना का नया गीता ज्ञान बांटा जा रहा है । यह सिर्फ बाजारू पैकेजिंग है । हिन्दी साहित्य अपनी समृद्धि को ओझल करता हुआ कब तक ग्लैमर की आंच में सामाजिक सरोकारों और मानवीय मूल्यों को होम करता रहेगा - इस पर गंभीरता से विचार होना चाहिये ।
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साहित्य का एक बड़ा सरोकार स्मृति से है लेकिन विस्मृति उसकी नयी लत बनाई जा रही है । नयों को अपनी परम्परा और सांस्कृतिक विरासत को विस्मृत करने की नयी प्रविधियां बताई जा रही हैं । यह आगे चलकर निश्चित ही क्रूरतम केऑस का रूप ले लेगा और सामान्य रचनाओं को विशिष्ट के रूप में स्थापित करते हुए हिंदी भाषा की समृद्धि को आंखों से ओझल कर देगा ।  ऐसे युवा उत्सवी माहौल में आज किसके पास फुर्सत है कि वरिष्ठ रचनाकारों के सृजन की ओर भी एक नज़र डालें ।  
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तीन चार दशक पहले प्रतिभावान महिलाओं की रचनात्मकता के लिये बहुत अनुकूल सामाजिक माहौल और मानसिकता नहीं थी । प्रतिभा को अनचीन्हें औजारों से बारीकी से कुचलने के लिये पूरा सामाजिक पारिवारिक माहौल एकजुट होकर खड़ा हो जाता था और प्रतिभा और रचनात्मकता को इसका अहसास भी नहीं होता था । वह तो पहले से ही अपने को सबसे निचले पायदान पर रखती चली आई थी , उसके लिये घर-परिवार , पति-बच्चे सबका दर्ज़ा सबसे पहले था , अपनी आकांक्षाएं , सपने और रचनात्मकता जो उसे एक पहचान देती है , सारे दायित्व , कर्तव्य निभाने के बाद आता था । एक ऐसी ही रचनाकार शीला इंद्र पर इस बार का स्तंभ ‘राख में दबी चिनगारी‘ केंद्रित है । शीला इंद्र जिस तरह उम्र के अवरोधों को लांघकर अपनी रचनात्मकता में पुनर्वास के लिये उद्यत हुईं , वह अलभ्य सा जान पड़ने वाला एक अनुकरणीय उदाहरण है ।
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शीला इंद्र यानी शीला जिज्जी , मेरी मित्र सुमति सक्सेना लाल की बड़ी बहन हैं । यह बात अलग है कि शीला जी से मेरी पहचान पहले हुई और सुमति जी से बाद में । हम दोनों ही उन्हें पुरबिया लहज़े में जिज्जी संबोधन से नवाज़ते हैं । सहित्य के आंगन में दोबारा लौटने का श्रेय शीला जिज्जी हम दोनों को देती हैं । यह सच है कि उन्होंने लगभग तीन दशक तक लेखन से संन्यास ले लिया था , पर लेखन की तपिश के इस घेरे में कोई भी अचानक पिछत्तर-अस्सी साल की उम्र में जलने के लिये अपने कदम नहीं बढ़ाता। चिनगारी अपने अन्दर दबी होती है। थोड़े संभाल के साथ उसे पहचान पाने और फूंकने की ज़रूरत होती है , वह चिनगारी तब अपनी चमक दिखा ही देती है । विशाल वृक्ष न बन पाये, तो भी एक नन्हा सा पौधा कुछ अलग किस्म के फूलों के साथ, आकर्षित तो करता ही है। 
शीला जिज्जी ने सन 2007 में ‘‘औरत की दुनिया’’ में मेरा एक आलेख पढ़कर कथादेश के संपादक हरिनारायण जी से मेरा नम्बर लेकर मुझसे संपर्क किया । फोन पर उनकी मधुर आवाज़ सुनकर कोई कह नहीं सकता था कि वे उम्र के 75 साल पार कर चुकी हैं । जब मैंने उनके लिखने और फिर खो जाने का इतिहास सुना तो सहज ही उन्हें आमंत्रण दे दिया कि आपने तो सौ साल पहले की स्त्रियां देखी हैं , उनकी सोच , उनके बंधन , उनके रीति रिवाज़ , रूढ़ियां और उन्हें न तोड़ पाने की बेबसी से भी वाकिफ़ हैं तो क्यों न उन पर एक आलेख लिखें । अब तो रोज़ उनके फोन पर सौ साल पहले की औरतों की बेहद दिलचस्प गाथाएं सुनने को मिलने लगीं, जिनका दस्तावेजी मूल्य था । एक की जगह उन्होंने लंबे लंबे चार संस्मरण लिखे कि इनमें से कोई भी ले लें । मैंने देखा कि शीला जिज्जी के पास तो इतना विशालकाय पिटारा है कि एक स्तंभ में कहां अंट पायेगा । अब उनसे पूरी किताब ही लिखने का अनुरोध किया । शायद हमारे पाठकों के लिये यह जानना दिलचस्प हो कि सीधे हाथ की उंगलियां टेढ़ी हो चुकने और कलम पकड़कर लिखना दुःसह होने के बाद भी लगभग अस्सी साल की उम्र में कम्प्यूटर पर बाकायदा रेमिंग्टन टाइप सेट में कृतिदेव फान्ट में टाइप करना उन्होंने सीखा और चार सौ पन्नों की नायाब किताब रच डाली - ‘‘ क्या कहूं , क्या न कहूं ’’ जो सामयिक प्रकाशन से दो साल पहले प्रकाशित हुई । इस संस्मरणात्मक किताब में वे अगर ‘‘क्या न कहूं’’ से मुक्त हो पातीं और सबकुछ बयान कर जातीं तो वह किताब एक बेमिसाल इतिहास रचती लेकिन अब भी उसकी अहमियत कम नहीं । 
दैहिक आपदाओं और मानसिक झटकों के बीच भी उन्होंने जिस तरह अपनी रचनात्मकता के स्पार्क को पूरी तरह बुझने नहीं दिया और हर बार आंच से झुलसकर भी राख झाड़ती हुई एक अगिनपाखी की तरह बार बार उठ खड़ी हुईं , बढ़ती उम्र की निरुत्साहित  लेखिकाएं उनकी इच्छाषक्ति और कर्मठता से एक सबक ज़रूर ले सकती हैं ।  मेरी जानकारी में शायद ही हिंदी भाषा में आज़ादी के पचास साल पहले की भारतीय स्त्रियों का ऐसा प्रामाणिक ब्यौरा दूसरी किसी किताब में मिल सकता है । 
‘‘ ससुराल डोली में आना और अर्थी में जाना’’ वाले उस समय की स्त्रियों की बातें जब स्त्री जितनी अधिक बेचारी होती थी, उतनी अधिक महान ! जब पढ़ी लिखी लड़की भी शादी की वेदी पर इस तरह बैठती थी जैसे बलिदेवी पर बैठी हो । जब घर की बहू ठिठुरती ठंड के दिनों में भी अकेली साड़ी लपेटे रसोई में पूरे कुनबे के लिये खाना बना रही होती और साड़ी के भीतर कांतर के घुस कर काट लेने के बावजूद अपने गले से चीख को बाहर नहीं निकलने देती क्यों कि घर के मरदों के सामने चीखना बेअदबी कहलाता ।
जब बीमारियां मौत के खूनी पंजे फैलाती आतीं और परिवार के परिवार समेट ले जाती थी। कोई लाश उठाने वाला भी नहीं होता था , यहाँ तक कि लाशें पड़ी छोड़ कर लोग गाँव से भागने लगते थे। चेचक से गुजर गए तो एक दुःख ,बच गए तो सौ दुःख । टी. बी. रोग होना यानी बहू या तो मायके में पटक दी जाती या अगर ससुराल में ही रही तो लाज़मी है कि टीबी के रोगी के साथ एक अछूत जैसा सुलूक किया जाता ।  कमरा अलग ,सामान अलग , खाने के सारे बर्तन अलग बेचारी अपने ही बच्चों की सूरत देखने को तरस जाती।
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हम दोनो ही मुंबई में थे, सो उन से अक्सर फोन पर बात हो जाती। मुझे लगता कि उन के पास लिखने के लिए बहुत कुछ है और मैं जब तब उन्हें लिखने के लिए उकसाने लगी थी और शीला जी ने 78 साल की उम्र में दोबारा लिखना शुरू कर दिया था।  गज़ब का जीवट है उन में। अपने परिवार से जुड़ी 25 से अधिक स्त्रियों की सच्ची कहानियां उन्होंने लिखी थीं । इन में उन महिलाओं की ज़िदगियों की सत्य कथाएं थीं , उन का वह माहौल था जिसमें उन्होने जीवन जिया था और वे परिस्थितियां थीं जिन्होंने उन लोगों को वैसा बनाया था जैसी वे थीं। ये सभी पात्र शीला जी के परिवार या आसपास से जुड़े हुए थे इसलिए सभी कहानियों में वे स्वंय मौजूद हैं। पर आश्चर्य की बात यह है कि कहीं भी वे अपने बारे में कुछ भी नही कहतीं । उन के लिखने का अपना एक अंदाज़ था जैसे कोई दूर खड़ा किसी घटना को देख कर उस का सच्चा बयान कर रहा हो और उस पूरी घटना में मौजूद हो कर भी तटस्थ हो। इस बयान में जो चीज़ सबसे ज़्यादा ध्यान खींचती है, वह है उन का सेंस ऑफ ह्यूमर। वे इन पात्रों के साथ काफी कुछ उसी तरह से मौजूद हैं जैसे उन घरों की दीवारें दरवाज़े या खिड़कियां होतीं हैं ! 
जान कर हैरानी होती है कि उनकी माताजी (सास जी) उनको ललित कलाओं की ओर प्रेरित करतीं थीं। अपवाद स्वरूप ही मिलती हैं ऐसी सासें ? कितना कठिन है, चारों ओर हाथ पैर मार कर जीत जाना, वह भी एक गृहिणी के लिये। एक पत्नी, मां, गृहस्थिन को .... हर जगह परीक्षा , हर जगह सवालों के हुजूम, सारे दायित्व निभाते हुए घर चलाना-संभालना, सबको खुष रखना और सबकी नज़र में खरा उतरना आसान नहीं होता ।
मेरे बहुत आग्रह के बाद फिर से अपने मन में उतरने वाली, शीला इंद्र का नाम, लगभग 50 साल पहले , बच्चों के लिए बेहद परिचित आत्मीय नाम था । पराग में उनकी लिखी कहानियों का बच्चे और बच्चों की मांएं बेसब्री से इंतज़ार किया करती थीं । आज प्रौढ़ हो गये वे पाठक, मिन्नी की कहानियों को, बेहद गद्गद् भाव से याद करते हंै, जो तब बच्चे थे। उस के बाद उन की कई कहानियां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान और सारिका में भी छपती रहीं थीं और फिर अनायास ही उन्होने मौनव्रत धारण कर लिया था। कारण पूछने पर जैसे प्रायः लेखिकाएं व्यक्तिगत मसलों की बात नही करना चाहतीं, वैसे ही शीला जी ने भी हंसी मज़ाक में बात टाल दी थी। हालांकि बहुत कुरदने के बाद जो कुछ उन्होंने लिखा, उससे हम समझ सकते हैं कि उन्हें किस कदर लेखन विरोधी माहौल में जीना पड़ा, सबकी तरह परिवार की प्राथमिकता उनके लिये भी अपने लेखन से बड़ी साबित हुई । ऐसे में टालने वाली हंसी को क्या महज़ एक मज़ाक मानकर दरकिनार किया जा सकता है ?
शीला जी के लेखन का रुका हुआ बांध खुला तो उन्होने काफी कुछ लिखा। अभी भी लिख रही हैं। इधर कथादेश,समकालीन भारतीय साहित्य,ज्ञानोदय और हंस में उन की कई कहानियां छपी हैं जिन्हें पाठको ने पसंद किया है। एक वयोवृद्ध कलम से कहानियों की आधुनिकता चैंकाने वाली है । सामयिक प्रकाशन से ही इनका एक कहानी संग्रह ‘‘एक बड़ा सवाल’’ भी छपा है। लेखन के प्रति उन की प्रतिबद्धता , उनका जीवट  और इससे भी ज्यादा उनकी कुलबुलाहट देखते हुए हम उन से अभी और पुस्तकों की उम्मीद रख सकते हैं।
शीला जी के लेखन में स्त्रियों के चेहरे का एक पूरा हुजूम जैसे उमड़ कर सामने आ गया । ढेर सारी औरतें हैं और हर औरत एक बड़ा सवाल खड़ा कर जाती है ।
इस किताब को पढ़ते हुए एक कविता ने मेरे भीतर आकार लिया 
एक स्त्री जब एक स्त्री भर नहीं रह जाती
एक जलता हुआ सवाल बन जाती है
ऐसे सवाल को कौन गले लगाना चाहता है
सवालों से कतरा कर निकल जाते हैं पुरुष
और अपनी ही जात के साथ बेवफाई करती बेग़ैरत औरतें
खड़ी हो जाती हैं जवाब का मुलम्मा पहने
सवाल बनी औरत के सामने
मज़बूत करती हैं अपराधी पुरुषों के कंधे
सवाल के बरक्स खड़े कर दिये जाते हैं
कई ग़ैरज़रूरी सवाल
किलोग उलझे रहें उनमें  
और सवालों को सवाल ही रहने दिया जाये
इन सवालों से भी किया जाता रहा है ऐसा सुलूक
जैसा स्त्रियों से किया जाता रहा सदियों तक !

आइये , अब शीला जी से मुखातिब हों उनके आत्मकथ्य के साथ - रचनात्मकता का अगिन पाखी ! और कहानी - मोहरा जो उनके एक अलग तेवर और अलग भाषा का बखान करती है , कि एक महिला रचनाकार जितनी खूबी से महिलाओं की समस्याओं को उकेर सकती है उतनी ही प्रामाणिकता से अफसरी खेमे के भ्रष्टाचार की भी बखिया उधेड़ने में कोर-कसर नहीं छोड़ती । 

मो. 097574 94505
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                                                           (शीला इन्द्र और सुधा अरोड़ा)   
     


आत्मकथ्य                                         
रचनात्मकता का अगिनपाखी
                                         
 0 शीला इन्द्र


मेरी तो हर कहानी अच्छा खासा समय लेकर कागज़ पर उतरी। हर कहानी रास्ते की बाधायें पार कर लिखी गई। लिखी गई तो इसका मतलब यह तो नहीं कि छप ही गई.....कितनी ही कहानियां दिमाग़ के ही अन्दर उछल कूद मचा कर चिर निद्रा में विलीन हो गईं। कितनी ही कहानियां वापिस आ गईं , और मैंने उन्हें लिफ़ाफे सहित फाड़ कर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। वे कहानियां अपनी किस्मत पर रोती होंगी कि किस मूर्ख़ के पल्ले पड़ी। कभी तो सोचा होता कि इनमें भी जान है , वह जैसे भ्रूण हत्या ! उसमें प्राण थे , एक आत्मा थी।

कहते हैं ‘ हानि लाभ जीवन मरन , जस अपजस विधि हाथ। ’

षायद वही सच होगा। षायद विधि ने ही वह कारण उत्पन्न किये कि हमने लिखना षुरू किया और फिर लंबा मौन धारण कर लिया। लिखना षुरू किया सो तो अच्छा हुआ पर विधि ने हमसे हमारा लिखना बंद करा दिया , सोच कर बहुत तकलीफ होती है। लिखती थी , पर तीन बार मेरे सीधे हाथ पर मुसीबत आई। हर बार कई कई महीने हाथ बेकार रहा , इतना कि अपने बाल बनाना भी संभव नहीं था। एक बार तो मैं नर्स से खुषामद करती रही , मेरे सीधे हाथ में इन्जैक्षन मत लगाओ , नसें बहुत पतली और टेढ़ी हैं , मेरा लिखना बन्द हो जायेगा। पर वह नहीं मानी। कई महीनों के लिये मैं पंगु हो गई। आखिरी बार 1987 में स्टेषन पर गिरी थी तो आज रजतजयंती तक सीधे हाथ की उंगलियां टेढ़ी हैं।

मैं दुनिया के साथ उसकी गति से भाग नहीं पा रही थी , मुंह की तो खानी ही थी।

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तब मैं 56 साल की हो चुकी थी। पर सच बात यह है कि मेरा लिखना तो उस से पहले भी बंद होता रहा था। सोचूं तो लगता है कि स्वस्थ और षांत मन से मैं लिख ही कब पाई ? मैं तो जैसे समय से अपने लिए कुछ घण्टे और मिनट छीन झपट चुरा कर लिखने का समय जुटाती रही । उस के बीच भी कितने सवाल , उन के जवाब और स्पष्टीकरण मुझसे मांगेे जाते - खाना बन गया ? श्रत को दवा दे दी ? शरत की टीचर से जा कर मिली या नही मिलीं ? इस घर में अगर अमृत हो तो समय पर मरते हुये को वह नहीं मिल सकता। तुम्हारी इन कहानियों से मेरा घर नहीं चलेगा।’’

बहुत सारे सवाल थे और जवाब देने वाली अकेली मैं ही तो होती थी और उस के बीच मेरा दबा छिपा माफीनामा रहता था क्योंकि संतुष्ट न कर पाने वाले हर जवाब पर फिर लगता कि मैं ही गलत थी। उतने सारे सवालों और उतनी गिल्ट के बीच भला क्या लिखते ? हम तो यूं ही किसी ज़िद्दी बच्चे की तरह अपनी कलम थामे रहे।

कितनी बार कहानी मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती , साथ चलने को कहती , और मैं झिड़क कर कहती ‘ अभी जाओ , फुर्सत नहीं है। वह झींक कर चली जाती , पर कभी बाद में बुलाना चाहूं तो.... तो वह मेरी चाकर नहीं थी , कि पहले दुत्कार कर भगा दूं और बाद में जब चाहूं वह आ जाये। श्रीमान जी के सामने भूल से कभी लिखने बैठ जाती तो पता नहीं मेरे लिखने से क्या परेषानी होती कि बीसियों बार मुझे उठा देते , ‘ सुनो! ज़रा एक गिलास पानी ला दो!’ बैठ कर क़लम उठाई कि ‘ज़रा रेडियो ऑन कर दो !’ फिर, ‘जरा लखनऊ लगा दो !’ पांच मिनिट में ‘दिल्ली’।

मुंबई के कबूतर के दड़बे जैसे घर , पर बीबी बच्चों पर रोब न दिखा पाये वह पुरुष , पति परमेश्वर ही क्या !

एक बार कह बैठी, ‘मन्नू भंडारी और दूसरी लेखिकाओं की कहानियों की तो बड़ी तारीफ़ करते हैं और मेरी ...? ’

मेरी बात पूरी होने से पहले चिल्लाये , ‘‘करूंगा तारीफ़...वे मेरा घर नहीं चलाती हैं।’’

मेरी कहानी तो पहले ही सद्गति प्राप्त कर कचरे के डिब्बे में पहुंच चुकी होती पर उसकी अन्त्येष्टि , मेरे दिल और दिमाग़़ की कन्दराओं में हो चुकी होती।

राख अभी भी पड़ी होगी कहीं।

पर हंसने का स्वभाव मेरा ! कहती , ‘‘ आपसे तारीफ़ पाने के लिये मेरी शादी किसी और से होनी चाहिये थी। है न ?

जिये जाने के लिये के लिये सबसे अच्छी दवा है - हंसना।

ज़िन्दगी बड़ी मुशिकल से मिलती है बन्दे , चाहे रो कर गुज़ार दो , चाहे हंस कर संवार लो।

फिर भी जब कभी मेरी कहानी पतिदेव को पसन्द आती , उसकी प्रषंसा करते थे , फिर यह भी याद दिला देते कि ‘देखो मैं तारीफ़ कर रहा हूं तुम्हारी ! ’

आज अपने आस पास लड़कियों को बेझिझक अपने पतियों से कहते सुनती हूं कि ‘‘कल बच्चे के साथ हम जगे थे आज तुम्हारी बारी है।’’हर बार ऐसा कुछ भी सुन कर अचकचा जाती हूं। बयासी साल की इस उम्र में माहौल का एकदम ऐसे बदल जाना गले के नीचे नही उतार पाती । नारी स्वतंत्रता और समानता की पूरी तरह से हिमायती होने के बावजूद कुछ ग़लत सा लगता रहता है। पर सोचती हूं कि सही तो हमारा समय भी नही था। फिर क्या सही और क्या ग़लत - तय कर पाना इतना आसान तो नहीं । स्वतंत्रता और समानता को परिभाषित कर पाना ही कहां संभव है। यह सारी धारणाएं उपयोग में आते तक कब दुरुपयोग की सीमा लांघने लगती है इसका भी हिसाब कहां किया जा सकता है।   

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मैं अपने पापा के जीवन पर एक पुस्तक लिखना चाहती थी, और आवेश में उनसे कह बैठी थी, ‘‘पापा आप पर एक पुस्तक लिखूंगी और जब तक वह नहीं लिखूंगी, तब तक कुछ भी नहीं लिखूंगी। यह शायद उनके रिटायर होने के कुछ साल बाद की बात है। तब तक बाल साहित्य के लिये तथा कुछ वयस्क कहानियों के कारण नन्हीं सी पहचान मिल चुकी थी । आकाशवाणी पर तो निरंतर मेरे नाटक आते ही रहते थे पर न तो मैं पापा पर पुस्तक लिख सकी न कुछ और ही लिखा। दो चार रचनायें बहुत पहले लिखी थी , जिन्हें कभी भेजा ही नहीं था। वे कहानियां मेरे मौन के वर्षों में अवष्य प्रकाशित हुईं थीं। पर साहित्य के बीच खड़े हो पाने के लिये यह नाकाफी था।

पर अब समय को वापिस नहीं ला सकती ।

सन् 1958 में मेरी छोटी बहन सुधा की एक कहानी सरिता में प्रकाशित हुई थी ‘बंगले की प्यासी आत्मा’, हम सब बड़े प्रसन्न थे , वह केवल उसी की उपलब्धि नहीं थी , वह पूरे परिवार की उपलब्धि थी। उन्हीं दिनों इन्टर में पढ़ने वाले हमारे भाई राम की एक व्यंग रचना ‘‘हम पुरुषों को भी समान अधिकार दो’ ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ में प्रकाषित हुई। एक सज्जन तो इतने जोष में आ गये, कि स्त्रियों के खि़लाफ़ जंग छेड़ने की बात करने लगे। तभी लगा कि यदि वे दोनों लिख सकते है, तो मैं क्यों नहीं लिख सकती ? उस समय सन् 1958 में ही दो रचनायें लिखीं थीं , ’‘माल पराया पर पेट तो अपना है ’’, और दूसरी दहेज समस्या पर। दोनो ही साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाषित हास्य-व्यंग थे । यह मेरे लेखन की छोटी सी षुरुआत थी। तब ‘‘हम भी कुछ हैं ’’ की एक नन्हीं सी आवाज़ कहीं अन्तर से उठी तो थी , जैसे धुएं की एक धूमिल रेखा , फिर अदृश्य में विलीन हो गई।

लिखना और छपना बेहद अच्छा लगता था, काफ़ी तारीफ़ मिली। पांच रुपये ससुर जी से इनाम क्या मिले , लगा जैसे जागीर मिल गई । पर और कामों को पीछे धकेल कर लेखन और सिर्फ लेखन को गंभीरता से लेने लगती ऐसा कुछ नही था। भरे पूरे परिवार में ब्याह कर गई थी मैं , बच्ची नहीं थी। अपने बंधन और ज़िम्मेवारियों को अच्छी तरह से समझती थी।

अब गंभीरता से अपने लेखन के बारे में सोचूं तो मेरी तो हर कहानी अच्छा खासा समय लेकर कागज़ पर उतरी। हर कहानी रास्ते की बाधायें पार कर लिखी गई। लिखी गई तो इसका मतलब यह तो नहीं कि छप ही गई.....कितनी ही कहानियां दिमाग़ के ही अन्दर उछल कूद मचा कर चिर निद्रा में विलीन हो गईं। कितनी ही कहानियां वापिस आ गईं , और मैंने उन्हें लिफ़ाफे सहित फाड़ कर कचरे के डिब्बे में फेंक दिया। वे कहानियां अपनी किस्मत पर रोती होंगी कि किस मूर्ख़ के पल्ले पड़ी। कभी तो सोचा होता कि इनमें भी जान है , वह जैसे भ्रूण हत्या ! उसमें प्राण थे , एक आत्मा थी। तब सोचा ही नहीं कि एक ने पसन्द नहीं किया , तो क्या ? 

                                                (बच्चों के साथ)



जैसे लेखकों के लिये कहा जा सकता है कि ‘‘अंदाज़े बयां  अपना अपना ।’’ वैसे ही संपादको की भी ‘‘पंसद अपनी अपनी’।’ न लिखने वाला किसी लीक से बंधा है , न पसंद करने वाला किसी नियम कानून से। मैंने उन कहानियों को फाड़ कर फेंकने से पहले सोचा ही नहीं कि कोई दूसरा उसे पसंद कर सकता था । नहीं भी करता तो भी यों फाड़ कर फेंका क्यों ? और सजाती । और संवारती।
मेरा बच्चों के लिये लिखा एक वैज्ञानिक बाल उपन्यास ‘बिन फूलों का जंगल’ जो मैंने 1966 में डॉक्टर होमी जहांगीर भाभा के दुखद निधन के बाद लिखा था ( जो इसी दुर्घटना को आधार बना कर लिखा गया था।) उसी साल पराग की वैज्ञानिक कथा प्रतियोगिता’ से वापिस आ गया था। उसे भी फाड़ने के लिये उठाया , पर हाथ उसे फाड़ ही नहीं सके। पड़ा रहा वर्षों। पूरे पन्द्रह साल बाद मिश्रा ब्रदर्स अजमेर के अनुराग प्रकाषन से एक वैज्ञानिक बाल उपन्यास’ की प्रतियोगिता में भाग लेने के लिये पत्र आया था। खोज कर उस कचरे की दषा में पड़ी रचना को उतार कर फिर से भेज दिया। उसको प्रथम पुरस्कार मिला। मन में बड़ी कसक हुई । काश! यह वर्षो पहले 1966 में पराग में प्रकाषित हो जाता , तो उसकी सार्थकता बनी रहती। उस पुस्तक में वीडियो कान्फ्र्रैन्सिंग जैसी मीटिंग की बात की थी जिसकी तब कल्पना भी नही की जा सकती थी। बम्बई में तो टी.वी. सन् 1972 में तथा कम्प्यूटर 1980 के क़रीब आया था। विज्ञान मेरा विषय नहीं था। वैसे टी.वी. जैसी किसी चीज़ के बारे में सुन चुकी थी। पर पूरी दुनिया के लोग अपने घर अथवा आफ़िस में बैठ कर एक साथ कान्फ्रैंस कर सकते हैं , कम से कम मुझे तो नहीं मालूम था। आज वह आम बात है। मैं वह सब देखती सुनती हूं तो लगता है मेरी कल्पना साकार हुयी। पर अब किससे कहूं यह बात। बाद में तो वह केवल एक किताब भर रह गई थी, जिसको किसी ने देखा पढ़ा भी या नहीं , मुझे नहीं मालूम। पराग में छपता तो पाठकों की प्रतिक्रिया पता लगती। उस किताब में मैने ऐसे टोप की भी बात की है जिसे पहन कर व्यक्ति को अपने अतीत की घटनाओं के चित्र टी.वी. अथवा कमप्यूटर पर दिखायी देने लगते हैं। सोचती हूं कि कौन जाने किसी दिन वैसा भी संभव हो जाए। उसमें दो ढाई सौ साल बाद आबादी इतनी अधिक बढ़ चुकेगी कि बच्चे पैदा करने के लिये लायसेंस लेना पड़ेगा। और देखिये आज कितने दम्पत्ति ऐसे हैं जो बच्चे की आवष्यकता नहीं समझते। इन पिछले कुछ सालों में दुनिया जिस तेज़ी से बदली है कि है कि कुछ भी असंभव नही लगता। सन् 1966 के 46 साल बाद आज दुनिया कितनी बदल चुकी है, हम लोगों ने कल्पना भी नहीं की थी । शायद पुस्तक की कल्पना तक पहुंचने के लिये अब दो ढाई सौ साल की ज़रूरत नहीं होगी। बहुत पहले ही वह समय आ ही जायेगा।
इसी तरह मैंने कुछ साल पहले एक कहानी हिन्दी की एक ख्यात पत्रिका में भेजी थी। वह अस्वीकृत हो गई । आष्चर्य हुआ । बुरा भी लगा। ग़नीमत है कि पहले की तरह मैंने उसे फाड़ कर नही फंेंक दिया । कुछ समय बाद , बिना एक शब्द बदले मैंने उसे ‘समकालीन भारतीय साहित्य’ में भेज दिया । वहां वह स्वीकृत हो गई। मैने कल्पना भी नहीं की थी, कि कहानी को इतना पसन्द किया जायेगा। भारत के विभिन्न षहरों से उच्च अधिकारियों के प्रषंसा भरे फ़ोन आए थे आपने ऐसी कहानी लिखी कैसे ? क्या आप कहीं आफ़िसर हैं ? मिलिट्री आफ़िसरों के, डाक्टरों के फ़ोन । प्रष्नों की बौछार ! जयपुर के एक नवयुवक लेखक संघ ने मुझसे सवाल किया था, ‘‘आखिर कथानायक का क्या हुआ...?’’ काफ़ी देर बात होने के बाद मैंने कहा था -‘देखो! चारों ओर, पूरी तरह ईमानदारी और सेवा की कसम खाये ये नवयुवक आफ़िसर भयंकर जानवरों के पंजो में छटपटाते , अपने जिस्म और ज़मीर की जंग में किस तरह सिर्फ्ऱ मोहरा बन कर मात खाते हैं।’
लोगों के सवालो में मेरी कहानी और उसके पात्र जीवित हो गये थे।
छठे दषक में रेडियो पर सुना कि ‘यदि आप रेडियो नाटकों में पार्ट लेना चाहे तो एक कार्ड पर अपने बारे में लिख भेजिये, हम आपको आॅडिषन में  बुलायेंगे।’ उसी समय एक कार्ड लिख कर भेज दिया। कुछ दिन बाद आॅडिषन के लिये पत्र आ गया। श्रीमान जी को पत्र दिखा कर पूछा, ‘चली जाऊं?’ खुशी खुशी अनुमति मिल गई। मैंने उतनी दूर जाने का ट्रेन , बस आदि का रास्ता पूछा जो षायद उन्हें ठीक पता नहीं था, सो सवा घंटे का रास्ता मैंने ढाई घंटे में पार किया।
वहां ऑडिशन में तो पास हो गई ! पर दो महीने में वहां से नाटक के लिये बुलावा आ गया तो लौटने में रात के ग्यारह बज गये। अब श्रीमान जी बहुत गुस्से से बोले - ‘‘किससे पूछ कर वहां गई थीं ?’’ सिर झुकाये सुनती रही, आखि़र मैं धीरे से बोली ,‘‘सुबह आपको बताया तो था कि षाम को जाना है। आप से आज की छुट्टी लेने को भी कहा था । और परमीशन तो आपने ही दी थी न आडिशन के लिये कि चली जाओ। ’’ तो खीज कर बोले , ‘ हां दी थी परमीशन , मुझे क्या पता था कि चुन ही ली जाओगी ! ’’
मैं मुस्कराई ‘हां ! सोचा था कि फे़ल तो होगी ही , तो अपने दोस्तों और घर वालों के सामने मज़ाक बनाने को एक शगल मिल जायेगा। क्यों ?’
       उस पहले नाटक के डायरेक्टर भृंग तुपकरी जी उस दिन आये नहीं थे, हम सब यों ही नाटक की प्रैक्टिस करते रहे। पूरे एक घंटे के नाटक का नाम था, ‘कीचक वध’, कीचक का रोल रेडियो के बड़े मंजे हुये कलाकार कमलाकर दाते ने किया था। मुझे कीचक की पत्नी का रोल मिला था। घर काफ़ी देर से पहुंची थी , डांट फटकार का सीन समाप्त होने के बाद जल्दी जल्दी रोटी बनाने और खाने का कार्यक्रम समाप्त हुआ। फिर से प्रश्नावली शुरू हो गई , ‘नाटक क्या था ? क्या रोल था? अच्छा जिसकी पत्नी बनी थीं , डायलाग डिलीवरी के समय उसके लिये मन में प्यार भरे भाव तो आये ही होंगे न ? बिना भावों के वैसे डायलाग बोले ही नहीं जा सकते। ’
मैं परेशान , क्या उत्तर दूं ऐसे बेहूदे सवालों का?
दूसरे दिन नाटक की फ़ायनल रिकार्डिंग थी , तुपकरी जी के सामने पहली बार गई थी। वहां खड़ी माइक के सामने बोल रही थी और दिमाग़ में घर के एक कमरे में छूटे तीरों जैसे तीखे सवाल वार कर रहे थे। तुपकरी जी ने झींक कर मेरा लम्बा रोल वहीं की एक आर्टिस्ट कुसुम सेठ को दे दिया और मैं एक दासी बन , दो चार वाक्य बोल बड़ी बेआबरु हो कर निकली वहां से। पर मैंने हार नहीं मानी , घर में जो भी हुआ , नाटक तो करुंगी ही ।
दूसरा नाटक मुझे मिला दो ढाई महीने बाद। डायरेक्टर - याकूब सईद । सांवले, पतले दुबले अपने काम के लिये कड़क! नो नॉनसेंस वाला व्यक्तित्व , कोई गड़़बड़ नहीं चाहिये वाली भंगिमा। जब अपना रोल पढ़ा तो परेशान ! काफ़ी लम्बा रोल था, अन्तिम वाक्य ,सीन मेरा ही था - ठहाके मार कर हंसना। एक ही औरत को छù वेष में दो भिन्न आवाज़ों में बोलना था। नाटक तो ठीक ठाक करती रही , पर आज फिर देर हो जायेगी ,सोच कर जान निकली जा रही थी। बहुत दूर था मेरा घर और साथ में भी कोई नहीं था। मैंने परेशानी में भर कहा था आज फिर बहुत देर हो जायेगी। उस प्ले में सिनेआर्टस्ट शिवराज जी भी थे, बेहद मसखरे। सुन कर पूछा, ‘कहां रहती हैं आप ?
‘जी चैम्बूर।’
  शिवराज जी मेरे लिये सईद जी से भिड़ गये, उन्होंने मेरा पूरा पार्ट पहले करवाया। मेरे निकलने के बाद औरों का पार्ट हुआ होगा। मुझे यह संतोष रहा कि वह नाटक सफलता से कर लिया था।
आधे घंटे वाले नाटक कुछ और किये, फिर कुछ दिन बच्चों तथा नारी जगत के नाटक किये। उस समय के प्रसिद्व कलाकार शिवराज जी, यशोधरा काटजू, छाया आर्य, तरूण बोेस, आकाशदीप आदि रेडियो स्टेशन के कुशल आर्टिस्ट तो थे ही , कइयों के नाम भूल गई हूं ।
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इधर मैं नाटक और वार्तायें आकाशवाणी में देने लगी थी, हवा महल के लिये भी दो चार नाटक दिये थे। तब रेडियो स्टेशन में ही मुझसे कहा गया, ‘‘देखिये शीला जी हमारे पास नाटक में काम करने वाले बहुत लोग हैं , लिखने वाले नहीं हैं। आप तो हमें नाटक वार्ता आदि लिख कर देती रहिये। वैसे आकाशवाणी में मेरी हर रचना स्वीकृत हो जाती थी। एक सप्ताह में स्वीकृति मिल जाती थी, पर किसी भी पत्रिका में भेजो तो कई महीने उत्तर आने में ही लग जाते थे। फिर प्रकाशित होने में तो और कई महीने लग जाते। यही सोचती थी , कि कौन इतने झंझट में पड़े। अव्वल दर्जे की मूर्ख थी मैं ! कभी नाटकों को छपवाने की बात भी नहीं सोची। इतना लिखने के बाद भी मेरी झोली ख़ाली है। आज इतने साल बाद लगता है कि रेडियो के बहाने मैं बहुत व्यस्त रही । थोड़ा बहुत पैसा भी मिलता रहा पर साहित्यिक उपलब्धि के संदर्भ में मैं सिर्फ अपना समय और श्रम व्यर्थ कर रही थी।
एक बार ‘नदी पीछे नहीं मुड़ती’’ षीर्षक पर एक नाटक लिखने की फ़रमाइश थी। मैंने लिख कर भेज दिया , कुछ दिनों बाद पड़ोसियों के फ़ोन पर बेहद कर्मठ और सहयोगी हेमांगिनी रानडे के श्लोक सुनने को मिले, ‘क्यों षीला जी! हमें इस नौकरी से निकलवाना चाहती हैं क्या  ? पूरा नाटक सरकारी तंत्र की बेइमानी से भरा है। अरे मैडम! हम इसी तंत्र के एक छोटे से पुर्ज़े हैं। आप फ़ौरन इसी शीर्षक से दूसरा नाटक लिख कर भेजिये, जिसमें पांच पुरुष हों , पात्र बढ़ जायें तो चलेगा पर कम नहीं हों , हम सब बुक कर चुके हैं। दो दिन में पूरा नाटक लिख कर स्वयं पहुंचाना भी पड़ा।
वर्षों बाद की बात है । रिटायर होने के बाद मैं एक दिन आकाशवाणी गई थी, हेमांगिनी रानडे ने मेरे सामने हाथ फैला दिया, ‘क्या लाई हैं हमारे लिये..दीजिये। इतने सालों बाद आई हैं और ख़ाली हाथ?  
‘ कुछ भी नहीं लिखा है। लिखना बिल्कुल भूल गई हूं।’ सच ऐसा ही लगता था कि अब कभी कुछ भी नहीं लिख सकती। पापा जा चुके थे, मां भी थक रहीं थीं। मगर हेमांगिनी जी मानने वाली नहीं थीं, बोलीं, ‘रिटायर हुई हैं, अपने रिटायरमेंट पर ही कोई नाटक लिखिये।’
तब नाटक लिखा था ‘रिटायरमेंट’... नवभारत टाइम्स में उस नाटक की बहुत प्रसंशा छपी थी, उसके लगभग साल बाद आया था ‘मां रिटायर होती है।’ मुझे नहीं मालूम उस स्टेज नाटक में क्या था, पर मेरे पास इस बात का सबूत नहीं है कि मैंने वह एक नाटक लिखा था। जिसमें ढेरों मजबूरियों में फंसी मां ने परिवार से सालों अलग रह कर दूसरे षहर में नौकरी की थी। अब रिटायर होने के बाद उच्च पदस्थ बेटे के घर चैन से जीवन काटना चाहती है। पर बहू और सुखी सम्पन्न बेटी दोनों ही उसे अपनी षर्तो में बांधना चाहती हैं। मां का सपना भंग हो गया था....और वह बिना किसी को बताये लौट गई अपने किराये के छोटे से घोंसले में। बेटे-बहू को उनके सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त करके।
शुरू में ही एक बार रेडियो के ‘‘नारीजगत’’ कार्यक्रम में ‘शक्ति पूजा’ लेख पढ़ा था, वहां शुक्ल प्रभा नाम की एक महिला थीं, शक्तिपूजा से अत्यधिक प्रभावित हुईं, कहने लगीं, ‘आप बहुत बढ़िया लिखती हैं, और बोलने का ढंग भी बहुत अच्छा है, आप तो गुजराती धार्मिक सभाओं में हिन्दी में ही प्रवचन कीजिये, आप को एक बार के पूरे एक हज़ार रुपये दिये जाऐंगे। उस समय सरकारी नौकरी के आफ़िसरों को भी कहां एक हज़ार रुपये मिल पाते थे।
मैंने मना कर दिया,’मैं सभा वग़ैरा में नहीं बोल सकती, बहुत नर्वस हो जाती हूं।’’
वे हंसीं थी, शुरु में सब नर्वस होते हैं बाद में आदत पड़ जाती है। उस समय मेरे पास धार्मिक कथाओं से भरे ढेरों ‘कल्याण’ तथा अन्य पुस्तकें थीं। वर्षों के लिये तैयारी हो सकती थी। पर न मुझे धार्मिक कार्यकलापों में आस्था थी , न इन प्रवचनों पर। आज बच्चे कहते हैं, ‘आस्था नहीं तो क्या? कितने रुपयों की संपदा तुम्हारे पास होती। ’ पर मेरे लिये संपदा के मायने अलग थे । 
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आकाशवाणी पर नाटक करते समय एक नाट्य कलाकार ने कई बार कहा, ‘शीला जी आप रंगमंच पर काम करिये, आपकी आवाज़ और डायलाग डिलीवरी बहुत अच्छी है। पर मैंने मना कर दिया । वहां तक जाने की बात तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती थी।
वहां मेरे लिखे नाटकों में काम करने वाले आर्टिस्ट जिनमें कई फिल्म कलाकार भी थे, मेरी बड़ी तारीफ करते थे, कहते ‘शीला जी आप ऐसे ही लिखती रहिये, लिखना बन्द मत करियेगा।’ मैं परेशान होती थी कि क्यों बन्द कर दूंगी। पर पता ही नही चला कि लिखना कब छूट गया। छूटा तो क्या , कारण ही वैसे बनते चले गये।
मेरी बड़ी बेटी ने एस.एस.सी पास किया था , पास ही के सोमैया कालेज में उसके दाखि़ले के लिये गई थी, वहां प्रिंसिपल साहब से बात करते समय अचानक ही उन्होंने पूछा , ‘ आप की क्वालिफ़िकेशन क्या है ? ’
‘ जी एम.ए. हिन्दी। सुन कर उन्होंने मुझे अपने कालेज में पढ़ाने का आफ़र दे दिया। पर जैसे ही  उन्हें पता चला , कि आगरा विश्वविद्यालय से प्रायवेट परीक्षा दी है तो कहने लगे, ‘बम्बई विश्वविद्यालय’ प्रायवेट वालों को नहीं लेता है।’ तब अचानक ही नौकरी करने की इच्छा और ज़रूरत महसूस होने लगी थी। लगा कि मुझे कहीं भी काम करना ही है। पर सालों से घर बैठी, बी.एड. भी नहीं और तब निर्णय किया कि अब बी.एड करना है। सब कुछ आसानी से तो नहीं होता, पर जो ठान लिया जाये , वह हो ही जाता है। उन कठिनाइयों में भी आनन्द था। कुछ कर पाने का सुख। सन् 1948 में इन्टर करने के बाद.... 1950 में शादी के बाद...1953 में बी.ए. 1955 में एम.ए. और 1956 में केवल ड्राइंग और पेंटिंग में बी.ए. किया। अब तक दोनो बेटियां तथा बड़ा बेटा गोद में आ चुके थे। और बी.एड. करने से काफ़ी पहले दो जुड़वां बेटों की मां और बन चुकी थी। यदि मुझे माता जी - अपनी सास - का प्रोत्साहन नहीं मिलता तो कुछ भी नहीं कर पाती। हमेशा कहतीं थीं, ‘बहूरानी तुम चैका चूल्हा संभालने के लिये नहीं बनी हो। ये काम तो नौकर चाकर भी कर लें। तुम तो तस्वीरें बनाओ , संगीत की षिक्षा लो , नाम करो। दूसरे शहर रह कर भी वे मेरी हर संभव सहायता करती रहतीं थीं। पर मेरा पत्रिकायें तथा पुस्तकें पढ़कर समय ‘बर्बाद’ करना उन्हें भी पसन्द नहीं आता था।
बी.एड. में बड़ी मेहनत थी, पर कुछ ऐसा हुआ कि उसी साल मेरी एक कहानी ‘अन्धा कुंआ बन्द चैराहा’ माधुरी में प्रकाशित हुई। और एक ‘अंधेरे की ओर’ को पराग में प्रथम पुरस्कार मिला था। इसलिए कालेज में मुझे सब पहचानने लगे थे। गणित विषय पर प्रोजैक्ट में ढेरों पेंन्टिग तथा एक आयल पेंन्टिग ‘पार्थेनियन आफ़ ऐथेन्स’ बनाई थी, चालीस साल की मैं, पंद्रह साल से किसी कालेज के दर्शन भी नहीं। मेरी गणित की टीचर ने मुझे चिपटा लिया था, ‘व्हाई आर यू डाईंग इन दिस बी.एड. माई चाइल्ड ! यू आर सो टैलैन्टेड...’’ मुझसे कई साल छोटी वे टीचर मिसेज़ रेले मुझे माई चाइल्ड कह कर ही पुकारतीं थीं। उस प्रोजैक्ट का नाम था, ‘द ब्यूटी आफ़ मैथमैटिक्स इन नेचर एंड आर्किटैक्ट’। उस के लिये कई तस्वीरें बनाते समय जैसे गणित के सौंदर्य का आभास हुआ था। एक अणु - कण से लेकर पूरे ब्रह्मांड में गणितमय सौंदर्य व्याप्त है। किन्तु वहां के प्रिंसिपल मुझसे बहुत नाराज़ हो गये थे क्यों कि वे चाहते  थे कि मैं कालेज के एनुअल फंक्षन में सभी संगीत कार्यक्रमों में हारमोनियम बजाऊं। मैं बहुत परेषान थी , प्रैक्टिस के लिये देर तक कैसे बैठूं , पढ़ाई कब करुं। फिर घर की ज़रूरतें भी थीं। उस साल मेरी बड़ी बेटी बी.एस.सी फ़ायनल में दूसरी इन्टर फ़ायनल में, बेटा एस.एस.सी में थे। मेरे कारण उन लोगों की पढ़ाई में भी व्यवधान पड़ता ही था। तब मेरी कई टीचर्स मेरे पीछे पड़ गईं, ‘‘शीला! इस चक्कर में मत पड़ो, इतने सालों के गैप के बाद पढ़ाई कर रही हो, तुम्हें केवल पास ही नहीं होना है, बढ़िया माक्र्स भी लाना है।
आज जीवन के अन्तिम सोपान पर एक बात समझ आती है , कि कोई भी कला हो , बिना गुरू के ज्ञान अधूरा ही रह जाता है। ज्ञान होना ही काफ़ी नहीं, निरंतर साधना भी उतनी ही आवष्यक है। मेरे पास तो न गुरू थे , न साधना के साधन ही थे , और न उसमें होम होने के लिये समय और धन।
बच्चन जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि एक शिक्षक चाहे कितना भी ज्ञानी हो, अन्त में उसका ज्ञान केवल उतना ही रह जाता है, जिस कक्षा को वह पढ़ाता है। मैने पांचवीं से ग्यारहवीं कक्षा तक , फिर जूनियर कालेज में पढ़ाया। ज्ञान का तो बंटाधार होना ही था। और मेरी भाषा  ? मिश्रित भाषाओं के छात्र , ऐसे ऐसे वाक्य बोलने और लिखने वाले , कि मुझे लगता कि मैं अपनी हिन्दी भूलती जा रही हूं। बजाय कहानी या लेख लिखने के, मैं छात्र छात्राओं के निबन्धों पर टिप्पणियां ही लिखती रह गई। ऐसे माहौल में बेटियों के भरपूर सहयोग के बिना कुछ भी करना संभव नहीं था।
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पापा बहुत बीमार थे, अगस्त 1982 में उन्हें देखने उदयपुर गई थी, उस समय उन्हें सुनाने के लिये मैं काफ़ी कुछ ले भी गई थी। मुझे देख दुखी होने लगे, ‘‘षीला! तुमने लिखना क्यों बन्द कर दिया, मेरे जीवन में ऐसा कुछ भी नहीं है जो कोई पढ़ना चाहे। तुम लोगों का लिखा हुआ तो मेरे लिए ट्रैज़र है।’’इतना बोलने में ही वे बुरी तरह थक गये थे और तब लगा था, ‘ये क्या किया मैंने ? मां पापा के ये छोटे छोटे सुख हम लोगों ने कितनी बेदर्दी से छीन लिये। जब भी उन्हें पता लगता कि हम भाई बहनों की कोई रचना छपी है, पापा फ़ौरन बाज़ार जाते, पत्रिका के साथ उस पर चढ़ाने के लिये मोटा पेपर भी लाते और मां, फ़ौरन उस पेपर को पत्रिका पर सी देतीं, काम टालने की आदत उन दोनों की ही नहीं थी और घर में जो भी आता बड़े ही गर्व से उसे दिखाते। किसी को पसन्द आये या नहीं, पर वह उनकी अपनी उपलब्धि थी। हमने सोचा भी नहीं था कि हम न लिख कर अपने मां पापा को कितना कष्ट पहुंचा रहे थे।
   पिछले साल हंस में , फिर मेरे कहानी संग्रह में प्रकाषित कहानी ‘एक बड़ा सवाल’ मेरे इस कूढ़ मगज़ में पच्चीस साल या संभवतः उससे भी अधिक रही , समझ सालों से करवटें बदलती रही , परेषान होती रही मैं और अपनी छोटी आलसी बहना सुमति को बताती रही, ‘लिख ले बहुत बढ़िया प्लाट है।’ और वह तो मेरी ही सग्गी में सग्गी बहना है, कहती ‘हां है तो बड़ा बढ़िया प्लाट ! तुम ही लिखो न जिज्जी।’ आखिर एक ही थैली के चट्टे बट्टे हैं हम दोनों । दोनों के बीच में पूरे तेरह साल पांच दिन का अजीबो ग़रीब आंकड़ा। मैं सबसे बड़ी वह सबसे छोटी....जैसे सो सो कर जगते हैं, पूछते हैं, ‘क्यों? कुछ लिखा क्या?’ बिल्कुल फ़िल्मी अंदाज़ में, ‘कुछ कहा क्या?’ ‘कुछ भी नहीं’ और फिर सो जाते हैं।
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    लिखना पढ़ना एकदम बन्द था, कई बरस से आंखों में मोतियाबिन्द, किसी न किसी बहाने आॅपरेषन टलता जा रहा था। जब एक दिन अहसास हुआ कि एक आंख लगभग समाप्त हो गई है। तो भाग दौड़ मच गई। अक्टूबर 2003 दीवाली की छुट्टियां, बेटी ने अपना लखनऊ जाने का टिकिट वापिस कर ऑपरेशन करवाया।
कई साल से जैसे पंगु बनी मैं, अपनी निरर्थकता का अहसास कचोटता रहता हांलांकि घर में ढेरों काम अपना माथा ठोकते रहते , क्या घर है ! 
पारवारिक परेशानियां किसे नहीं रहतीं ? मुझे भी रहीं , पर हंसते रहने की आदत ने हमेशा सीधा खड़े रहने की शक्ति जुटाई थी। पारिवारिक भीड़ में तो लिखना संभव नहीं था , पर बच्चे षोर मचाते रहें मुझे अन्तर नहीं पड़ता ।  बाल साहित्य के लिये तो पूरी कहानी खाना बनाते, सामान ख़रीदते दिमाग़ में सेट हो जाती थी। रेडियो नाटक भी ऐसे ही लिखे थे। एक बार लिख कर कभी उसे दोबारा लिखने की फुर्सत नही थी इसलिए ज़रूरत भी नहीं पड़ी । लिखने के लिये कभी भी मुझे एकान्त की ज़रूरत नहीं पड़ी क्योंकि पड़ती तो भी वह मुझे नसीब तो होता नहीं । पर अब....इतने सालों बाद..? कई पतवारें संभाले मैं लगती भी किस किनारे ?
एक दिन । मेरी बेटी ने मेरी बेचैनी देखी तो काॅलेज से लौटकर मेरे सामने पूरा एक रिम फुलस्केप पेपर पटक दिया, ‘लो मां! सब तरफ़ से मन हटा कर अब फिर से लिखना षुरू करो। क्या लिखूं? का बड़ा भयंकर प्रश्न सामने आकर डराने लगा- तुलसीदास तो हूं नहीं कि स्वांतःसुखाय लिखूं ? वह हंसी, ‘कुछ भी लिखो...अपने बारे में ही लिखो।’
बेटे ने कम्प्यूटर पकड़ा दिया, ‘चलो मां! इस पर लिखने की प्रैक्टिस करो। उस दिन लगा कि कैसे बच्चे बड़े होकर माता पिता के मां बाप बन जाते हैं। मेरे इस नये जनम में मेरे बच्चों ने ही नहीं सुमति के दामाद रजनीश ने भी बहुत सहायता की है।
कूपमंडूक रही - दुनिया के उस कोने में जहां बस मैं और मेरा छोटा सा संसार है। और उसकी अजीबो ग़रीब समस्याएं !  भूल गई थी कि अपने देश में हिन्दी की कोई पत्रिका कभी छपती भी थी। अंग्रेजी के नगाड़ों के बीच हिन्दी की मरी मरी सी नफीरी कौन सुनेगा ? तब मेरी छोटी बहन सुमति सक्सेना लाल ने मेरे उस कूप में कुछ पत्रिकायें फेंक दीं, ‘जिज्जी अभी भी दुनिया अपनी धुरी पर घूम रही है। हम क्यों ठहरे हुये हैं !
उस कूप के जल में हलचल होने लगी थी।
बड़ी षान से हम अपनी उपलब्घियों का ज़िक्र करते हैं, पर भूल जाते हैं उन हाथों को जो कभी सामने आकर, कभी अदृष्य रहकर हमारे काम को आगे बढ़ा देते हैं, या जतन से पीछे ही धकेल देते हैं। दो हज़ार पांच या छः में एक दिन नवनीत के संपादक श्री विश्वनाथ सचदेव जी से फ़ोन पर बात हुई थी, कहने लगे बहुत अच्छा लिखती हैं आप , बन्द क्यों कर दिया ? ’
मैंने कहा, ‘अपने पापा से वायदा किया था कि पहले आप पर ही लिखूंगी, तब कुछ और लिखूंगी... वह कभी लिख ही नहीं पाई, और माॅ पापा दोनो ही चले गये। अब कौन पढ़ेगा? कैसे लिखूं अब 75 साल की उम्र में ?’
वे हंसे, ‘ 75 साल भी कोई उम्र होती है? लिखना चाहें तो अब भी लिख सकती हैं, आपके पापा जहां भी होंगे अवश्य ही पढ़ेंगे।’ मुझे हंसी आ गई, पिछत्तर साल की उम्र...कुछ होती ही नहीं है...?
हम हिन्दुओं की आस्था भी कितनी प्रबल होती है, जुड़े रहते हैं अपने अतीत और वहां बसे अपने लोगों से, कोषिष करें तो भी छूट नहीं पाते हैं। अपनो के चले जाने पर भी , कहीं न कहीं तो हांेगे ही वे , ये विश्वास कितना बल देता है।
 ‘क्या कहूं ? क्या न कहूं ?  का लिखना सुधा अरोड़ा और छोटी बहन सुमति सकसेना लाल के ही कारण हो पाया , नहीं तो क्या एकाएक 78-79 साल की उम्र में कोई किताब लिखने की बात सोच भी सकती थी मैं ? सिवाय बाल साहित्य के पहले कोई पुस्तक प्रकाशित हुई ही नहीं थी। प्रारब्घ ने सुमति को पकड़ा था कि अपनी जिज्जी को कई पत्रिकाओं के साथ कथादेश’ पत्रिका भेजो, और कथादेश ने मुझे सुधा अरोड़ा तक पहुंचा दिया। उनका ही अनुरोध था , औरत की दुनिया नामक स्तंभ के लिये कुछ भेजने के लिये । धीरे धीरे अनुरोध आदेश बनता चला गया । औरत की दुनिया के स्तंभ - हमारी विरासत: पिछली पीढ़ी की औरतें ’’ के लिये एक संस्मरण लिखा और पचीसों कहानियां सुनाई । एक कथा से दूसरी तक जाते जाते पांच सौ पन्नों की किताब हो गई और मेरे हाथ में मेरी पुस्तक ‘क्या कहूं ’ आ गई। साथ में आ गया एक कहानी संग्र्रह ‘एक बड़ा सवाल’।
आश्चर्य होता है, नियति की नीयत पर, कैसे उंगली पर नचाती है वह....
 आज लगता है कि दिमाग में कितना कुछ है । कितने कथानक । कितनी बातें । कितनी यादें। पर क्या अब लिखने की शक्ति और समय शेष भी है ? अपने आप पर भरोसा करने के लिये भी अपने पास बहुत कुछ चाहिए होता है । कितना गया कितना बचा का हिसाब कैसे लगाऊं, समझ ही नही आता।
इसलिए कितना कुछ और करना चाहती हूं और कितना कर पाऊंगी की बात सोच कर भी क्या करूं ? फिर लगता है कि षायद षुभचिन्तकों की तसल्ली ही सही है। इतने साल बिना कुछ किये व्यर्थ चले गये का मातम मना कर क्या करना है ! चलते चलते यह दो किताबें छप गयीं यह कम है क्या ?
कभी सोचती हूं, कि स्कूल कालेज में किसी भी परीक्षा में फ़ेल न होने वाली मैं - जीवन की हर परीक्षा में फ़ेल होती चली गई ! कई पतवारें संभाले मैं लगती भी किस किनारे ?
आज का काम सदा कल पर टालने वाली मैं... अगर ये घोषणा करने का साहस करुं कि, ‘क्या हुआ कि इस जनम में नहीं लिख पाये, तो कौन ये धरती उलट गई, कौन सा आसमान फट गया? अगले जनम में तो लिख ही लेंगे।’ फिर सोचती हूं कि जब मेरा ‘कल’ बरसों बाद आया, तो अगला जनम कितने जनमों के बाद आयेगा ?
कैसे पता लगे ?
         बेख़ुदी में हम इस कदर खो गये....
         होश आया तो जाना कि रात हो गई।
पुनश्च -
मैं यह लेख लिखने के मूड में बिल्कुल भी नहीं थी। कोई भी अपने बारे में बिना पक्षपात किये कैसे लिख सकता है ? ‘हम ही सही हैं’ की भावना व्यक्ति से अधिकतर ग़लत लिखवा लेती है। इस कारण सभी कुछ हंसी में टालती रही। पर सुधा जी धमकी देने लगीं , ठीक से नहीं लिखेंगी तो यही सब छपवा दूंगी । डराने के पैतरे भी उन्हें अच्छी तरह आते हैं। ‘यह नहीं, वह चाहिये’ के कितने झटके...दसवां ड्राफ्ट है यह ! सुधा अरोड़ा ने तो मुझे धो डाला , पर बता दूं कि यहां भी रंग पक्के हैं ... अब चमक नहीं सकती मैं....
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कहानी                                          
                                                      मोहरा
                                                                  (परिवार के साथ)    
 


शीला इन्द्र

        सुनते हैं कि पुराने ज़माने में राजाओं नवाबों और बादशाहों को शतरंज खेलने का बड़ा ही शौक़ था। किन्तु उनकी शतरंज के मोहरे सोने चांदी या क़ीमती लकड़ी के नहीं होते थे। वे ज़िन्दा इन्सान होते थे। चलते, फिरते, बतियाते । सबसे बड़ी बात यह कि वे सांस भी लेते थे। इतनी गहरी सांसें कि पर्वत भी हिल जाये पर वे मोहरे होते थे। चालें चली जातीं, बाज़ी जीती, हारी जाती। और पिटने वाला मोहरा.....खचाक् । सिर धड़ से अलग।
           मुझे लगता है, कि आज भी शतरंज ज़िन्दा इन्सानों को लेकर ही खेली जाती है। बड़े भाग्यवान होते हैं वे लोग जो इन शतरंजी चालों से बच जाते हैं, और सही सलामत निकल आते हैं। मैं जो इन शतरंजी चालों का एक प्यादा रहा, सदा पिटता रहा, मुझे कोई ज़िन्दा कहेगा ? पूरी तरह टूट फूट कर निकला हूं।
        क्यों कि मैं बहुत ऐफ़िशियन्ट था, और मेरी ऐफ़िशियन्सी ही मेरी राह का रोड़ा बन गई। सारा जीवन होम हो गया । मेरा तबादला रोकने के लिये मुझे मेरे प्रमोशन से वंचित किया जाता रहा। वह विभाग था , मिलिट्री लैंड्स एंड कैन्टोन्मैन्ट.....सैंट्रल कमांड का।    
         मैं प्यादा था । एक मामूली क्लर्क । अपने प्यादे जीवन में पिटते पिटते एक दिन मैं घोड़ा......ऐक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर - बना दिया गया। और टेढ़ा चलने को मजबूर हो गया। किन्तु यह भूलने की बात नहीं है, कि घोड़ा भी एक मोहरा ही होता है, जो केवल अढ़ाई घर ही चल सकता है, उससे आगे पीछे नहीं। अब यह बताना ज़रूरी नहीं कि सरकार के भव्य भवन की नींव क्लर्कों अथवा छोटे छोटे अफ़सरों के ही कंधों पर रखी होती है। बड़े बड़े अफ़सर और मंत्री आदि तो ऊपर के सौंदर्य को चार चांद लगाने वाले कंगूरे भर होते हैं।
      लैंसडाउन में ऐक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर के पद पर मेरे दो वर्ष पूरे हो चुके थे। और मेरे निवेदन के अनुसार हमारे डायरेक्टर कोहली साहब ने मेरा तबादला मेरे पैतृक शहर बरेली के निकट शाहजहांपुर कर दिया था।
        किन्तु नये अफ़सर श्री लूथरा के आने से एक दिन पहले कोहली साहब का फ़ोन आ गया कि ‘अपना रिज़र्वेशन कैंसिल करवा दो। तुम्हारे लिये नये आर्डर्स भेजे जा रहे हैं।’ श्री लूथरा को आफ़िस का चार्ज लिये चार दिन हो गये, और हम लोग सामान बांधे परेशान हो रहे थे। कर भी क्या सकते हैं, सरकार के नौकर हैं, हुक्म तो मानना ही पड़ेगा।
        अजीब सी स्थिति थी, लूथरा को चार्ज भी दे चुका था. आफ़िस किस अधिकार से जाऊं? किस कुर्सी पर बैठूं ? मैं घर में बेगाना सा पड़ा रहता, जैसे किसी सराय में पड़ा होऊं. लूथरा के परिवार के आजाने से अब घर में कहीं भी बेखटके घूम फिर भी नहीं सकता था.
        चैथे दिन शाम को पांच बजे अचानक फ़ोन घनघना उठा। पागलों की तरह मैं फ़ोन पर झपटा। दूसरी ओर कोहली साहब ही थे, मेरा हैलो सुनते ही बोले, ‘‘हैलो सिन्हा! आय एम साॅरी, पर इस समय हम, तुम्हें बजाय शाहजहांपुर के चन्दनपुर छावनी भेज रहे हैं।’’
           उनका हुक्म सुन कर मुझे चक्कर आगया। मैं जैसे चीख़ पड़ा,‘‘सर! यह आप क्या कह रहे हैं ? एकदम रिमोट एरिया? मैंने आपको बताया था कि मुझे दो बेटियों की शादी करनी है। वहां मुझे अपनी जाति के लड़के कहां मिलेंगे?’’ मैं जैसे कोहली साहब की बात सुनने को बिल्कुल भी तैयार नहीं था।
        ‘‘डोन्ट एक्ट लाइक अ फ़ूल सिन्हा! कैसे सोच सकते हो कि चन्दनपुर में तुम्हारी जाति के लड़के होंगे ही नहीं ? क्या पता तुम्हारी बेटियों का भाग्य ही तुम्हें वहां लिये जा रहा हो। पर चन्दनपुर इज़ अॅ वेरी डिफ़िकल्ट स्टेशन। एण्ड यू आर द ओेनली परसन, हू कैन हैंडिल द प्राबलम्स एफ़िशियन्टली एंड टैक्टफ़ुली। आय कैन बैट.....तुम्हें यही बताना काफ़ी होगा कि वहां आजतक कोई भी ई.ओ. छः सात महीने से अधिक नहीं रुका है। किन्तु मुझे तुम पर इतना विश्वास है कि तुम पूरे दो वर्ष की टर्म पूरी किये बिना नहीं हिलोगे और......’’
       मैंने उनकी बात बीच में ही काट दी ,‘‘सर! सारी ज़िन्दगी अपनी एफ़िशियन्सी की ही सज़ा भोगता आया हूं ,अब फिर एक बार सही।’’ बड़़़े ही हताश स्वर में मैने कहा। अपनी सीमा मैं जानता था। वह तो वर्षो मैंने उनके साथ काम किया था। इसलिये इतना बोल गया , नहीं तो क्या अफ़सर से इतना कहना भी संभव था ?
      ‘‘डोन्ट बी सो डेस्परेट, माय बाॅय! तुम्हारे रिटायरमेंन्ट से पहले तुम्हें हम शाहजहांपुर भेज देंगे। ये हमारा वायदा रहा।’’
       मुझे हंसी आ गई। मुझसे कई साल छोटे कोहली साहब ‘माय बाय’ कह कर मेरी पीठ थपथपा रहे थे। गीता को सारा हाल बताया तो वह रोने लगी, ‘‘हमारी किस्मत में कभी सुख चैन नहीं, सोचा चलो आभा बरेली में है तो शाहजहांपुर, बरेली के पास पहुंच जायेंगे। कभी वह घर आ जायेगी और कभी हमीं वहां मिलने चले जायेंगे तो दूरी इतनी खटकेगी नहीं। ’’ बरेली के निकट जाने का एक कारण यह भी था कि सरकारी क़ायदे के अनुसार रिटायर होने वाले कर्मचारी को अपने घर लौटने के लिये किराया तथा सामान का भाड़ा कुछ भी नहीं मिलता था।  दूर बसे नगर से अपने पैतृक शहर लौटना बड़ा ही मंहगा पड़ता था।
         दुखी हों या सुखी अब जाना तो चन्दनपुर ही था। सो लैंसडाऊन को अलविदा कह कर हम लोग चन्दनपुर जाने वाली गाड़ी में सवार हो गये। ट्रांसफ़र की नौकरी भी क्या अजीब होती है। कितनी नई नई जगहें घूमने को मिलती है। मन कहीं जुड़ने लगता है, तो वे सारे रिष्ते तोड़ कर अचानक चल देना तकलीफदेह होता है। जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास कराने वाला यह ट्रांसफ़र, हर बार कचोट जाता है।
          ‘सब ठाठ धरा रह जायेगा.....जब लाद चलेगा बनजारा।’
          जब चन्दनपुर पहुंचे तो वहां दीनबंधु ओबराय तथा उनका परिवार अत्यन्त बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। डर रहे थे कि ऐसा न हो कि उनको रिलीव करने कोई पहुंचे ही नहीं। हम लोगों को देखते ही उनके बुझे चेहरे खिल गये। हमारा ऐसा स्वागत हुआ जैसा कभी , किसी का नहीं हुआ होगा। उस सारी रात ओबराय न खुद सोये न मुझे सोने दिया। ओबराय ने बताया कि, ‘छावनी के बोर्ड आफ़िस में जनता के प्रतिनिधि, ऐक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर पर इतने हावी हो जाते हैं, कि वहां का शासन तंत्र डगमगाने लगता है। जनता समझती है कि सारा अनाचार ई.ओ. ही कर रहे हैं।’ ओबराय की तो, एक बोर्ड मीटिंग में वह दशा की कि उच्च रक्तचाप के कारण, नाक से बुरी तरह रक्त बहने लगा और उन्हें अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा।
     ‘‘इनमें एक हैं,’’ ओबराय ने बताया, ‘‘यशपाल गनात्रा जिनके नाम को छोटा करके केवल वाई .जी .कह कर पुकारा जाता था, और धीरे धीरे वे वाईजी से भाईजी हो गये। साथ में उनके मित्र श्री चन्दानी , भाईजी के साथ साये की भांति रहते। लै. कर्नल गरेवाल बोर्ड के प्रेसिडेंट तथा भाई जी वायस प्रेसिडेंट। इन लोगों की शराब कवाब की दोस्ती है। गरेवाल साहब उन लोगों के ग्रामाफ़ोन रिकार्ड हैं। उनकी इच्छा के विरूद्ध कुछ बोल ही नहीं सकते। दरअसल गरेवाल साहब को सदर छावनी की समस्यायों से तो जूझना पड़ता नहीं, वे आंख मंूद कर वायसप्रेसिडेन्ट की बात मान लेते हैं। वे लोग ई.ओ. से बड़ी ही हिकारत से कहते हैं, ‘‘तुम एक मामूली सेक्रेटरी हो, चुपचाप मिनिट्स लिखो, तुम्हें यहां बोलने का कोई भी अधिकार नहीं है।’’ ओबराय की आंखे जैसे जल रहीं थीं ,बोला ,‘‘अगर उनकी इच्छा हो तो हमें किसी के भी घर का छज्जा गिराना पड़ेगा। यदि उनकी इच्छा हो तो किसी को भी एक कमरे की जगह तीन कमरे बनाने की पर्मिशन देनी ही पड़ेगी। रूल्स रेग्यूलेशन जायें भाड़ में... ये....ये भी साली कोई ज़िन्दगी है? लानत है ऐसी ज़िन्दगी पर। हम आफ़िसर हैं या...या भड़वे’’ कहते कहते वह फूट फूट कर रोने लगा। मै बिना कुछ कहे धीरे धीरे उसकी पीठ थपथपाता रहा।
0       स्त्रियों को बड़ी जल्दी रोना आता है। अपना दुख जाहिर करने में उन्हें ज़रा सा भी समय नहीं लगता । पर पुरुष जब रोता है तब सचमुच ख़ून के आंसू रोता है।
     सुबह चार बजे के लगभग ओबराय सो गये, इतनी चैन की नींद, जैसी संभवतः महीनों से नहीं सोये होगे। और मुझे उस नाविक की कहानी याद आरही थी, जो दिन रात नाव खेने को शापित था। अब कोई उसके हाथों से अगर पतवार ले ले तो वह श्राप मुक्त हो कर अपने घर चला जाता। और तब वह नया नाविक नाव खेने को बाध्य हो जाता जब तक कोई नया आकर पतवार न थाम ले। आज ओबराय अपनी पतवार मेरे हाथों मे देकर निश्चिन्त होकर सो गया। अब यह नैया मुझे खेनी है, देखते हैं किस पार लगती है यह नाव।
        समस्या उससे कहीं बड़ी थी, जितनी मैंने समझी थी।
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      ओबराय के जाने के दूसरे दिन मैंने अपने आफ़िस के एस.डी.ओ. मिस्टर मधुकर राव से सुबह जल्दी आकर मुझे चन्दनपुर की ख़ास जगहें दिखाने के लिये कहा था। हमारे कोठी के गेट तक पहुंचने के पहले ही हमें दो व्यक्ति गेट के बाहर आते दिखाई पड़े। मधुकर बहुत धीरे से बोले ‘‘ये दोनों सज्जन यहां के रईस हैं। भाईजी और चन्दानी। दोनो हमें देख कर ठहर गये। मेरे पास पहुंचने पर एक सज्जन ने ,जो बेहद मोटे थे, मुझसे पूछा, ‘‘तो आप ही हमारे नये एक्ज़िक्यूटिव आफ़िसर हैं?’’ उनकी आवाज़ ऐसी थी जैसे तोप के गोले दागे जा रहे हों।
        मैंने उनकी ओर हाथ बढ़ाते हुये नम्रता से कहा ,‘‘जी हां! बदकिस्मती से मैं ही हूं।’’
        उन्होनें बड़ी ही गर्मजोशी से मेरा हाथ अपने दोनों हाथों से पकड़ कर ज़ोर ज़ोर से हिलाते हुए कहा ,‘‘अरे रे! ये आप क्या कह रहे हैं , ये तो हमारी और हमारे चन्दनपुर की ख़ुशकिस्मती है कि आप इस शहर में आये। ओबराय तो एकदम करप्ट था। हमने तो कमांड के आफ़िस में लिख दिया कि हमें ऐसा करप्ट आफ़िसर नहीं चाहिये।’’
       ‘‘अभी तक जितने भी एक्ज़िक्यूटिव आफ़िसर यहां आये, सभी करप्ट थे। हमने उन्हें यहां टिकने ही नहीं दिया।’’ ये मिस्टर चन्दानी थे। सांवले ,लम्बे ,दुबले पतले जैसे फूंक मारो तो उड़ जायेंगे। सुनहरी फ़्रेम के चश्में से झांकती उनकी दोेनों आंखे जैसे सामने खड़े व्यक्ति का एक्सरे लेतीं मालूम होतीं थीं और उनके जैसी ही पतली बेंत उनके हाथों में लहरा रही थी । वे एक सांस में उन सारे आफ़ि़सरों के नाम बोलते चले गये जो ओबेराय से पहले आये थे। मैं दंग। जिस व्यक्ति को सामने देख रहा था, वह साधारण व्यक्ति नहीं है यह अच्छी तरह समझ आ गया।
      ‘‘क्या पता साहब! मैं उन सबसे अधिक करप्ट सिद्ध होऊं, यह तो समय ही बतायेगा।’’ मैंने कहा। ‘‘आप लोगों की मेहरबानी रही तो शायद...’’
       मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही भाई जी हो हो करके हंसने लगे, ‘‘अरे नहीं साहब हमने आपकी बहुत तारीफ़ सुनी है। हम तो चाहते थे कि आप ही हमारे यहां आयें ! ’’
       ‘‘वैसे ओबराय ने तो हमारी खूब बुराई की होगी। परसों रात भर आपकी बैठक में बिजली जलती रही थी।’’ चन्दानी ने अपनी बेंत लहराते हुऐ कहा।
        मैंने हैरान होकर उनकी ओर देखा। मुझे लगा इस समय उनकी बात का उत्तर देना बहुत आवश्यक है। ‘‘ऐसा है ,चन्दानी साहब! आफ़िस में तो हम वहां का चार्ज देते और लेते हैं। पर घर पर हम लोग पूरे कैन्टोन्मेन्ट एरिया तथा वहां के लोगों के बारे में बताते हैं। बताने वाला अपने ढंग से बताता है , और सुनने वाला अपने ढंग से समझता है और साहब रात भर जो बिजली जलती रही वह इसलिये नहीं कि हम अंधेरे में बात नहीं कर सकते थे। वह तो इसलिये जलती छोड़ दी थी कि यदि कोई बाहर खड़ा हमारी बातें सुन रहा हो तो उसे अंधेरे में दिक्क़त न हो।’’ और बात पूरी होते न होते मैंने अपने दोनो हाथ उन दोनो की ओर बढ़ा दिये और कहा,‘‘अरे साहब! क्या बाहर खड़े खड़े ही बातें करते रहेंगे, जब यहां तक आ ही गये हैं तो अन्दर चल कर एक एक कप चाय लीजिये न।’’
          मैं सोच रहा था कि वे लोग नहीं आयेंगे पर वे अन्दर आ गये।
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        शाम को मैं गीता के साथ मिलिट्री के मेजर मेहरा के घर मिलने गया था। वहां मिलिट्री के और भी आफ़िसर अपनी पत्नियों के साथ बैठे थे। शराब की चुस्कियों तथा सिगरेट के धुंए के बीच हल्की फुल्की बातों का माहौल था।
        अचानक मेजर मेहरा ने पूछा ,‘‘व्हाई ,मिस्टर सिन्हा! ट्रांसफ़र्स टेक प्लेस इन योर डिपार्टमेंन्ट सो फ्रि़क्युन्टली ?’’
       ‘‘इसमें इनके डिपार्टमेन्ट का कोई क़सूर नहीं है सर, यहां के लोग इन लोगों को इतना सताते हैं कि कुछ ही महीनो में हाइ ब्लड प्रेशर होने के कारण ये लोग यहां से भागते नज़र आते हैं।’’कैप्टन कामथ ने हंसते हुऐ कहा। इस बात पर सभी हंसने लगे।
        सबके साथ मैं भी हंस दिया, फिर थोड़ा गम्भीर होकर बोला,‘‘सर! यदि मिलिट्री आफ़िसर्स का थोड़ा सा भी सहयोग मिले तो इन हाइ ब्लडप्रेशर दिलवाने वालों को मैं हार्ट अटैक दिलवा दूं।’’
        ‘‘सच! शराब के गिलास में शर्बत ढाल कर पीने वाले किसी को हार्ट अटैक भी दिलवा सकते हैं? देखेंगे अगर ज़िन्दा रहे तो।’’इसपर वहां एक ज़ोर का ठहाका उठा।
         मन में एक बहुत तीखी बात उठी कि कहूं ‘जी शराब पी कर मसनुवी हिम्मत जुटाने वालों में मैं नहीं हूं।’ पर ऐसी बात कहना उचित नहीं सो सब के साथ मैं भी हंसता रहा।
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        आफ़िस जाते हुऐ चार पांच दिन हो चुके थे। मैंने नोट किया कि मेरी मेज़ पर जो डाक आती , उसकी सारी चिट्ठियां खुली होती थीं। जिन पर ‘कान्फ़िडेन्शियल’ लिखा होता वे भी । मैंने अपने हेडक्लर्क को बुला कर इसकी बाबत पूछा। तो वे बोले,‘‘सर! यहां का क़ायदा है कि चपरासी सारी चिट्ठियां लेकर भाई जी के धर जाता है। वहां वे चन्दानी साहब के साथ सारी चिट्ठियां खोल कर पढ़ते हैं। उसके बाद दूसरे दिन चपरासी सारी डाक यहां लाता है। आपके सामने कल की डाक है, आज की कल आयेगी।’’ सुन कर मेरा दिमाग़ भन्ना गया।
        ध्यान आया कि ओबेराय ने बताया था कि हेडक्लर्क बंसल इन दोनो के पेड सर्वेंट हैं। अतः मैंने सोचा कि आफ़िस में किसी से भी कुछ भी कहने से लाभ नहीं। मैं उसी दिन बाज़ार गया औैर एक मज़बूत सी संन्दूकची तथा गोडरेज का एक ताला ख़रीद कर स्वयं ही वहां के पोस्टमास्टर के हाथों मे सौंप आया। ताले की एक चाभी उनके पास रहेगी और दूसरी मेरे पास रहेगी। आफ़िस आकर मैंने चपरासी को सख़्त ताकीद कर दी कि पोस्ट आफ़िस से सारी डाक सीधे मेरे ही हाथ में आयेगी। उस दिन जब चपरासी पोस्ट आफ़िस से वह सन्दूकची लेकर आया तो वहां अच्छा ख़ासा तमाशा बन गया था। यह बात मुझे मधुकर राव ने बताई। मेरे सामने किसी ने कुछ भी नहीं कहा। वे लोग सोच रहे थे कि मैने अपनी मौत बुला ली है।
       दूसरे या तीसरे दिन की बात है, चन्दानी साहब के साथ भाई जी बड़े भन्नाये हुए आये और आकर मेरे ऊपर बुरी तरह चिल्लाने लगे। ‘‘आफ़िस के सारे पत्र पहले हमारे घर आने चाहिये, तुम होते कौन हो, डाक सीधी आफ़िस मंगाने वाले? हम बोर्ड के वायस प्रेसीडेन्ट हैं। डाक पहले हमारे पास आनी चाहिये।’’
        मैंने शांति से उन्हें बैठाया और कहा, ‘‘क्षमा कीजिये, भाईजी! मैं मजबूर हूं, सरकारी नियमों ने मेरे हाथ बांध रखे हैं। हां यदि हमारे प्रेसीडेंट लै. कमांडर गरेवाल साहब मुझे लिखित में आर्डर देदें कि रोज़ सारी डाक आपके घर जानी चाहिये, तो कल से ही सारी डाक आपके घर ही जायेगी।’’
       भाईजी ने तैश में आकर मेरे फ़ोन से ही प्रेसिडेन्ट गरेवाल साहब से बात की और मेरी अकल ठिकाने लगाने की गुजारिश की। गरेवाल साहब मेरे ऊपर बिगड़ने लगे, भाई जी ज़िम्मेदार व्यक्ति हैं, डाक सारी पहले उनके ही घर भेजा करो।’’
       मैंने बड़े ही विनीत स्वर में कहा, ‘‘सर! मैं अभी चपरासी आपके पास भेज रहा हूं, आप कृपया उसके हाथ मेरे लिये लिखित आदेश भेज दीजिये, कि सारी डाक मैं बिना खोले वायस पे्रसिडेन्ट श्री यशपाल गनात्रा के घर भेज दिया करूं।’’ इस पर गरेवाल साहब ने कहा, ‘‘मैं नहीं समझता कि मेरे लिखित आदेश की ज़रूरत है। फिर भी इस समय मैं बाहर जा रहा हूं। लैटर मैं बाद में भेज दूंगा।’’ किन्तु वह लिखित आदेश कभी नहीं आया। और डाक भी भाई जी के घर नहीं गई।
   मुझे लग रहा था कि अब ये दोनों मुझसे कभी बात नहीं करेंगे पर चार पांच दिन बाद ही दोनो को सुबह सुबह अपने घर आता देख मैं चकित रह गया। मैने उसी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया। वे भी बड़े ही अपनेपन से बात करते रहे।
      अचानक भाईजी बोले ,‘‘देखिये सिन्हा साहब आप हमारे मेहमान जैसे हैं।’’ मैं जब तक उनकी बात समझूं वे हंसते हुये बोले, ‘‘अरे भई परेशान मत होइये, हम लोग तो यहां के बाश्ंिादे हैं। पैदा भी यहीं हुये ,मरेंगे भी यहीं। पर आप आफ़िसर लोग बाहर से आते हैं। ज्य़ादा से ज्य़ादा यहां कितना रहेंगे? दो साल बस।’’
       ‘‘वैसे आज तक कोई भी आफ़िसर सात आठ महीने से अधिक टिक ही नहीं पाया।’’चन्दानी ने व्यंग कसा।
       मैं ने भी हंसते हुये कहा ,‘‘आप घबड़ाइये मत ,चन्दानी साहब मैं आप लोगों की मेहमानदारी पूरे दो साल करके ही जाऊंगा।’’
       ‘‘वही तो , आप लोगों का ध्यान रखना हमारा कत्र्तव्य है। है कि नहीं?’’ और अपनी बात कह कर भाई जी ज़ोर ज़ोर से हंसने लगे। फिर बोले ,‘‘देखिये सिन्हा साहब आपको इस कोठी में कोई तकलीफ़ तो नहीं है? कुछ चाहिये तो ज़रूर बताइये।’’
        पहले तो मैं हिचकिचाया। लगा इन लोगों के सामने अपनी ज़रूरतें रखना उचित नहीं  फिर सोचा कि इन से बैर रख भी यहां रहना कठिन है। वैसे भी बैर पालने का मेरा स्वभाव नहीं। मुझे तो यहां की जनता का हित देखना है। सो जिस तरह अपनेपन से उन्होने प्रस्ताव रखा। उसी अपनेपन से मैंने स्वीकार भी किया। मुझे रहने के लिये आफ़िस की ओर से कोठी मिली थी। उन दिनों फ़र्नीचर मिलने की तो व्यवस्था नहीं थी। किन्तु थोड़ा बहुत ख़र्च कोठी पर मुझे सरकार से मिल सकता था। घर में कई जगह प्लास्टर उखड़ चुका था। मैंने उसकी मरम्मत और ड्राइंगरूम के लिये वाल टू वाल मैटिंग की फ़रमाइश कर दी। कोई अनुचित मांग नहीं थी, सो बोर्ड की मीटिंग में आसानी से पास हो गई। भाईजी तथा चन्दानी ने स्वयं ही अपनी कार में मुझे शहर ले जाकर मैटिंग का आर्डर दिलवा दिया  । मुझे लगा ये लोग षायद उतने बुरे नहीं हैं, जितना लोग उन्हें समझते हैं।
        जिस दिन वे लोग तैयार मैटिंग देखने के लिये मुझे शहर ले गये, रास्ते में ख़ूब हंसी मज़ाक करते रहे। उनकी हंसी का साथ मैं देता रहा। किन्तु मुझे आश्चर्य हो रहा था उनकी बात करने के ढंग पर। जो लोग एक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर को अपना ग़ुलाम समझते हैं। वे मुझसे इस तरह दोस्ती का व्यवहार कर रहे है।
        वहां से लौटते पर अचानक चन्दानी जी मुझसे बोले, ‘‘सिन्हा! आपसे एक ज़रूरी बात करनी है।’’
       ‘‘हुक्म कीजिये।’’मैंने उन्हें पूरा सम्मान देते हुये कहा।
             ‘‘देखिये अब तक जितने भी आफ़िसर यहां आये, सब बेकार लोग थे। अब आप आये हैं तो हम चाहते हैं कि आपकी देख रेख में हमारे चन्दनपुर का कुछ भला हो जाये।’’ भाई जी ने बड़े ही भावुक होकर कहा।
              ‘‘अब आप तो यहां एकदम नये हैं किसी को जानते नहीं कि कौन भला है और कौन बुरा। कौन सही है और कौन ग़लत। ये तो हम लोग जानते हैं जिनकी पूरी ज़िन्दगी यहीं गुज़री है।’’ चन्दानी ने कार चलाते चलाते, बेहद नम्र होकर कहा। ऐसा लगता था कि इनसे अधिक जनता का हितैषी कोई हो ही नहीं सकता है।
              ‘‘ये ही बात हम कहना चाहते हैं, सिन्हा जी!’’ भाई जी ने कहा,‘‘ बस आप हमारी बात मानते चलिये। जैसे हम कहें वैसा करते रहिये तो कोई रगड़ा झगड़ा ही नहीं। रही आपके सुख दुख की बात , तो उसका ध्यान रखने को हम हैं न? अब आप इतने सीनियर अफ़सर रिटायर होने वाले हैं पर आपको तो उतनी तन्ख़ा भी नहीं मिलती जितनी ओबराय या और नये नये अफ़सरों को मिलती थी।’’
             ‘‘देखिये आपको जब भी जिस भी चीज़ की ज़रूरत हो हमसे कहिये, हम हैं न। रूपये चाहिये तो वे भी हाज़िर हो जायेंगे। सुना है आपकी दो बेटियां ब्याहने लायक है। एक तो कहीं नौकरी भी कर रही है। क्या अच्छा लगता है कि....’’
              गुस्से और अपमान के कारण मैं अन्दर ही अन्दर उबल रहा था। पर चुप था। उन लोगों ने मेरी बेहद दुखती रग छू ली थी। और ऊपर से ये लालच, क्या मेरी उतनी ही कहानी है जितनी मैंने लिखी है? अपने को शान्त करने में मुझे कुछ क्षण लगे होंगे। फिर अत्यन्त नम्रता से कहा।‘‘भाईजी और चन्दानी जी! आप को शायद पता न हो कि इतने वर्ष काम करने के बाद हममें उतनी क्षमता तो आ ही जाती है कि सही और ग़लत आदमी को पहचान सकें। मैं भी चन्दनपुर के लोगों की भलाई ही चाहता हूं पर आप मुझे सौ रूपये देकर किसी के एक रूपये का नुकसान करने को कहेंगे, तो मैं उस व्यक्ति का एक रूपये का लाभ कराना अधिक पसन्द करूंगा।’’ एक क्षण रूक कर मैंने कहा ‘‘और मेरी बेटी नौकरी इसलिये करती है कि वह पढ़ी लिखी है। अनपढ़ गंवार नहीं। और उसकी शादी की ज़िम्मेदारी मेरी है , किसी और की नहीं।’’
          मैं वहीं कार रुकवा कर उतर जाना चाहता था पर चुप रहा।  घर आने से पहले ही मैं काम का बहाना करके कार से उतर गया।
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         यह बात अच्छी तरह समझ आ रही थी कि ये लोग ऐक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर को अपना मुख्य मोहरा मानते हैं, जब चाहो उसको दांव पर लगा कर बाज़ी लूट लो।
           मुझे आये तीन चार महीने ही हुये थे। उस दिन बोर्ड मीटिंग में मेरी भाईजी से बड़ी ज़ोरदार झड़प हो गई। छोटी मोटी झड़प तो अक्सर हो जाती थी। मैंने उनका निरादर कभी नहीं किया लेकिन सरकारी नियमों की अवहेलना करके कोई काम करना मैं पसन्द नहीं करता था। जनता का नुकसान करना भी मैं नहीं चाहता था ,पर भाईजी  अक्सर जिसका लाभ हो सकता था, उसके भी काम में अड़ंगा लगा देते। कहते, ‘‘बड़ी ऊंची नाक है इसकी, अपने को न जाने क्या समझता है, इसका काम ऐसी आसानी से नहीं करना है। थोड़ी नाक तो इसको घिसनी ही पड़ेगी।’’मैं इन बातो से बेहद परेशान हो जाता . अधिकांश मेम्बर भाई जी के समर्थन में होते और मैं कुछ भी नहीं कर पाता। अगर  मैं उस व्यक्ति का काम करने के लिये ज़ोर डालने की कोशिश करता, तो एक ही बात, ‘‘क्यों सिन्हा! मोटी रक़म खाई है, पार्टी से?’’
        मैं संयत लेकिन तुर्श आवाज़ में उत्तर देता, ‘‘भाईजी! आपसे अधिक कौन जानता है, कि मैं कितना खाऊ आदमी हूं?’’
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        आसान सी बात को उलझा देना उनकी आदत थी. और उनके सबसे बड़े समर्थक थे, हमारे बोर्ड के प्रेसीडेंट भव्य व्यक्तित्व वाले लै. कर्नल गरेवाल ! ऊंचे कद्दावर, सांवले, सुदर्शन! लेकिन .....  इस लेकिन को मैं शब्द नहीं दे सकता। वे भाई जी के शराब कवाब के दोस्त थे। भाई जी के विरूद्ध बोलने का उनमें साहस ही नहीं था। सही ग़लत का निर्णय वे नहीं करते थे। वे भाईजी का ग्रामाफ़ोन रिकार्ड थे। और इन लोगों की हां में हां मिलाना उनकी आदत नहीं जैसे मजबूरी थी। हर एक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर इन लोगों की गुट बाज़ी का शिकार हो जाता था। और हाइ ब्लडप्रेशर ले कर भागता ही नज़र आता।
       हमारे कैन्टोन्मेंन्ट बोर्ड मीटिंग्स में एक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर सेक्रेटरी होता था लेकिन  वह बोर्ड का मेम्बर नहीं होता था। अतः उसे बोर्ड के निर्णयों में वोट देने का अधिकार नहीं होता था। लै.कर्नल गरेवाल प्रैसीडेंन्ट तथा भाईजी वायस प्रसीडेंन्ट तथा कुछ अन्य, जैसे गैरिसन इंन्जीनियर, एस.डी.ओ, कैन्टोन्मेंन्ट के एरिया तथा वहां के सैन्य बल की आवश्यकताओं के अनुसार प्रत्येक वार्ड से चुने हुये जनता के प्रतिनिधि मेम्बर होते है। कैन्टोन्मैंट बोर्ड में इसके अलावा ज़िला मजिस्ट्रेट या कल्कटर के एक प्रतिनिधि की मेम्बर की भांति नियुक्ति होती है। प्रत्येक मीटिंग से पहले अन्य मेम्बर्स की भांति उनको भी सूचित किया जाता है। चन्दनपुर में शहर से एस.डी.एम. सुश्री मेधा विश्वास आया करतीं थी। आइ.ए.एस. किये कुछ ही वर्ष हुये थे। मेरी बड़ी बेटी प्रभा से एकाध वर्ष ही बड़ी होंगी। बड़ी ही सुसंस्कृत महिला थी वह।
      तो उस दिन, मेधा विश्वास पंद्रह बीस मिनिट देर से ही आई़ थीं। इस बाबत उन्होंने पहले फ़ोन से सूचित भी कर दिया था। जिस समय वे आईं, भाई जी से मेरी बहस हो रही थी  और भाई जी अचानक अपनी तोप के गोले की सी आवाज़ मे दहाड़े, ‘‘तुम चुप रहो सिन्हा! तुम केवल एक मामूली सेक्रेटरी हो ,चुपचाप बैठ कर मिनिट्स लिखो। तुम्हें इस मीटिंग में बोलने का कोई अधिकार नहीं है।’’
        मैंने अपना रजिस्टर ज़ोर से बन्द किया और कड़क आवाज़ में बोला, ‘‘आज पहले आप लोग मुझे मेरे अधिकार और कर्तव्य लिख कर बतायें। उसके बाद ही आज की कार्यवाही होगी।’’
        कर्नल साहब मेरे ऊपर बिगड़ कर बोले, ‘‘अपने अधिकार और कत्र्तव्य पूछो अपने डायरेक्टर साहब से।’’
        ‘‘मैं मूर्ख नहीं हूं जो डायरेक्टर साहब से अपने अधिकार और कत्र्तव्य पूछूं। मैं तो यह चाहता हूं कि आप लोग मुझे लिख कर दें, जिनसे मैं अपने डायरेक्टर साहब को भी बता सकूं  कि चन्दनपुर में कौन से क़ानून चल रहे हैं।’’
        सुश्री मेधा विश्वास ने उस तनावपूर्ण वातावरण को एक क्षण समझने का प्रयत्न किया। फिर भाई जी की ओर देख कर उनसे पूछा, ‘‘मामला क्या है भाई जी, आप किस बात पर इतना बिगड़ रहे हैं?’’
        इस पर भाईजी व्यंगात्मक लहज़े में बोले, ‘‘ये.....ये आये हैं हमारे बड़े विद्वान एक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर सिन्हा साहेब, अपने को न जाने क्या समझते हैं, लैंसडाउन से नये नये क़ानून सीख कर आये हैं।’’
       मैंने उन्हीं के लहज़े में कहा,‘‘जी नहीं, मैं लैंसडाउन से सीख कर नहीं आया हूं उन्हें सिखा कर आया हूं और अब आपको सिखा रहा हूं,’’
       ‘‘आप! आप मुझे क़ानून सिखायेंगे? है आपके पास कोई सबूत कि आप की बात ही सही है।’’ भाई जी मुझ पर बिगड़ गये।
      ‘‘जी ! बिना सबूत के मैं कोई बात नहीं करता।’’ कह कर मैंने रूल्स रैग्यूलेशन्स की किताब खोल कर वह नियम पढ़ कर सबको सुना दिया। वैसे मुझे सारे रूल्स रैग्यूलेशन्स रटे हुये थे। किन्तु ऐसे मौकों पर दूसरों की सुविधा के लिये मैं रूल्स की किताब अपने पास अवश्य ही रखता था। किताब में से रूल पढ़ कर मैंने कहा,‘‘अगर आपको सरकारी क़ानून नहीं मालूम तो अवश्य सिखाऊंगा।’’ गुस्से में भाई जी ने वह किताब मेरे हाथ से छीन कर दूर फेंक दी। और गरजते हुये बोले ,‘‘अपनी ये किताबें अपने पास रखो। मुझे मूर्ख बनाने की कोशिश मत करो।’’
         मेधा जी आंखें फाड़े उन्हें देखती रहीं। फिर बोलीं, ‘‘दिस इज़ डिस्गस्टिंग।’’
         लै. कर्नल गरेवाल ने उनकी बात पर ध्यान न देते हुये ,रजिस्टर के ऊपर हाथ रखते हुये कहा सिन्हा, ‘‘बहस छोड़ो अब आगे अजेंडा के अगले प्वाइंट पर आओ। और उन्होंने मेरा रजिस्टर खोलने की चेष्टा की। मैंने रजिस्टर पर हाथ रख कर कहा ‘‘प्लीज़ सर! अभी पहले ही प्वाइंट पर बात पूरी नहीं हुई है। वह पूरा होने पर ही हम आगे बढ़ सकते हैं।’’ और मैंने मेधाजी से कहा,‘‘मैडम! हम लोगों ने एक सज्जन को अपने लिये रिहायशी घर बढ़ाने की अनुमति दी है। मेरा कहना है कि अब यह भी निश्चित कर लिया जाये कि उनको इस काम को पूरा करने के लिये कितना समय दिया जाये, ये कहते हैं कि चाहे काम बड़ा हो या छोटा, समय कितना हो यह लिखना ज़रूरी नहीं।’
       ‘‘बिल्कुल सही। वह तो लिखकर देना ही होगा।’’ वे बोलीं, ‘‘भाईजी! मिस्टर सिन्हा ने जो नियम पढ़ कर सुनाया है वह तो कोई बच्चा भी समझ लेगा। अगर आपको समझ नहीं आया हो, तो इनकी कोई ग़लती नहीं है। काम जितना बड़ा है यह अवधि उसके हिसाब से ही होनी चाहिये। वह अवधि एक महीना भी हो सकती है, या एक साल भी हो सकती है।’’
         ‘‘क्या आप क़ानून की ग्रेजूयेट हैं?’’ भाईजी ने उनकी मज़ाक सी बनाते हुये पूछा और फिर हो हो कर हंस दिये। इस पर मिस्टर चन्दानी तथा उनके अन्य चमचे भी उनकी मज़ाक सी उड़ाते हुये हंसने लगे।
         मेधा जी काफ़ी गम्भीर हो गईं और बोलीं, ‘‘मैं लाॅ ग्रैजूएट तो नहीं हूं। किन्तु आय.ए.एस. में मेरा एक पेपर लाॅ का अवश्य था। पर क्या मैं आप से पूछ सकती हंू कि आप लोगों ने लॉ पास किया है?’’
         भाईजी के कुछ जवाब देने से पहले ही अचानक चन्दानी महोदय ‘हाय हाय’ करते हुए अपनी कुर्सी पर लुढ़क से गये, एक हाथ से वे अपना दिल थामे थे और दूसरे से मेज़ पकडे़ हुये थे। मैडम के प्रश्न का उत्तर देने के बजाये भाईजी चन्दानी महोदय को संभालने में लग गये। संभाल तो मैं भी रहा था, हांलांकि समझ रहा था कि वहां दूर दूर तक हार्ट अटैक नहीं था।
         भाई जी ने तरेरती दृष्टि से मुझे घूरा और बोले, ‘‘कर्नल साहब! मैं तो जाकर इन्हें अस्पताल दिखाऊंगा। आप अपनी मीटिंग चालू रखिये।’’
         मैंने कहा भी कि हम लोग आपका इन्तज़ार कर रहे हैं पर वे बिना उत्तर दिये चले गये और सबसे मज़ेदार बात यह थी कि चन्दानी साहब अपनी कार ख़ुद चला कर ले गये। मैं कार के शीशे में से उनका चेहरा देखता रहा।
         पिछले ई.ओ. श्री ओबराय की कही एक एक बात मुझे याद आती रही। ओबराय ने बताया था कि ये लोग किसी को भी टायम बार नहीं देते हैं, तभी मैं समझ गया था कि इस प्रकार बाद में काम पूरा न होने पर उस व्यक्ति को तंग करने तथा रूपया वसूलने का अच्छा मौका मिलता होगा और जनता की गालियां मिलती हैं, बेचारे ऐक्ज़ीक्यूटिव आफ़िसर को।
        मीटिंग मे मेरी और भाईजी की बहस के दौरान लै.कर्नल गरेवाल बराबर मुझे चुप कराने की कोशिश करते रहे पर मुझे लगा कि अगर आज दब गये तो गये हमेशा के लिये और छः महीने में हायब्लड पे्रशर लेकर मैं भी सबकी तरह भागता नज़र आऊंगा।
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अपने बड़े से बड़े दुश्मन को भी मुसीबत में देख कर मैं प्रसन्न नहीं होता। भाईजी तथा चन्दानी जी से मेरी दुश्मनी होने का कोई कारण भी नहीं था। उसे केवल मतभेद कहेंगे। वैसे मैने कभी किसी को भी दुश्मन माना ही नहीं।
       उन दोनों के जाने के बाद हमने शेष सदस्यों के साथ अपनी मीटिंग की कार्यवाही पूरी की। मीटिंग समाप्त होने पर जब सारे मेम्बर जाने लगे, तो गरेवाल साहब ने अन्य मेम्बरों से कहा, ‘‘आप लोग चलिये, मुझे सिन्हा से कुछ बात करनी है।’’उनकी भाव भंगिमा से स्पष्ट था कि वह अपनी सारी नाराज़गी मेरे ऊपर उतारने वाले हैं। अचानक मैडम तेज़ी से आगे बढ़ आईं ,‘‘साॅरी मिस्टर सिन्हा! कर्नल साहब से पहले दो मिनिट मुझे बात करनी है, आप बाद में बात कर लीजियेगा।’’ मैं समझ गया कि उन्होंने मुझे क्यों रोका है। अन्दर जाकर उन्होंने कमरे का दरवाज़ा भेड़ दिया ताकि उनकी बातें बाहर सुनाई न पड़ें। लगभग बीस मिनिट वे अन्दर रहीं ,फिर बाहर आकर मुझसे बोलीं , ‘‘अब आप जा सकते हैं।’’
       मैं कमरे की ओर बढ़ा तो बोलीं, ’’मिस्टर सिन्हा मुझे आज आपकी दृढ़ता देख कर बड़ा अच्छा लगा। आप जैसे अनुभवी और समझदार ई.ओ. को भेज कर सरकार ने सचमुच बड़ी अक्लमंदी का काम किया। मैं आपकी सफलता की कामना करती हूं।’’ फिर एक क्षण जैसे कुछ सोचती हुई सी बोलीं ,‘‘मुझे नहीं मालूम कि मुझे आपसे यह कहना चाहिये अथवा नहीं। फिर भी कह रही हॅू,, आप से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। यू आर रियली वंडरफ़ुल, इन लोगों से निपटना आसान नहीं है।’’ और फिर तेज़ी के साथ बाहर चली गईं। उनकी कार जाने की आवाज़ आई तो मुझे ध्यान आया कि मुझे कर्नल साहब से मिलना है।
        ऐसे छोटे छोटे इनाम ज़िन्दगी में कितने मूल्यवान होते हैं।
        अब तक कर्नल साहब बिल्कुल शान्त हो चुके थे। उनके चेहरे पर हल्की सी मुस्कराहट थी। और उन्होने मुझसे बैठने के लिये कहा, ‘‘मैं समझता हूं सिन्हा कि बोर्ड के मेम्बरान ऐसे नहीं हैं कि उनको मुंह लगाया जाये। और सबसे बड़ी बात यह है कि सरकारी अफ़सर होने के नाते आप इतना ध्यान रखें कि पब्लिक के इन मामूली लोगों के सामने अपना गुस्सा न दिखायें।’’
      कर्नल साहब मुस्करा कर बातें कर रहे थे, मैं भी मुस्कुरा कर ही उत्तर दे रहा था।‘‘नहीं सर! भाई जी का व्यवहार बहुत ही आपत्ति जनक था। सरकारी नियमों को न समझ कर उनकी अवहेलना करके, उन पर चीख़ पुकार मचा कर वे मेरा ही नहीं आपका भी अपमान कर रहे थे। मैं बोर्ड का सेक्रेटरी हॅू ,मेरा यह कत्र्तव्य है कि समय समय पर जनता के मेम्बरों को सरकारी नियमों की जानकारी देता रहूं। सो सर, मुझे तो यही परेशानी हो रही थी कि आप बजाय भाईजी को रोकने के मुझे ही चुप रहने को क्यों कह रहे थे।’’
        सारी बातचीत अंग्रेजी़ में ही हो रही थी। कर्नल गरेवाल ने मुस्करा कर इंगलिश की कहावत कही, ‘‘आय वान्टेड टू गिव दैम अ लांग रोप।’’
       मैने भी वैसे ही उत्तर दिया,‘‘ यस, अ रोप लांग इनफ़ टू हैंग यू एंड मी।’’
       कर्नल गरेवाल ने बहुत हंसते हुये कहा, ‘‘मिस्टर सिन्हा! मैं जानता हूं कि आप जैसा एफ़िश्यिन्ट आॅफ़िसर ऐसा नहीं होनेे देगा।’’
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 हम लोग कमरे से बाहर आ गये। कर्नल साहब की बात सुन कर मुझे अपनी पीठ ठोंकने की इच्छा हो रही थी। या कहूं कि अपना सिर पीटने की तबियत हो रही थी। मेरी इस एफ़िशियन्सी ने मुझपर क्या क्या तो सितम ढाये हैं। इसी एफ़िशियन्सी की रस्सी में जकड़ा मैं सदा सूली पर लटका रहा हूं।
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       अगस्त का महीना था। एक शाम मैं कल्ब में बैठा ब्रिज खेल रहा था। सैनेट्री इन्सपैक्टर रमन बाबू का फ़ोन आया कि पुरानी बस्ती में बाढ़ आगई है। वहां भगदड़ मच गई है। पुरानी बस्ती, नदी के किनारे बसी ग़रीबों की बस्ती का नाम है। मैंने वहीं से कैप्टन बिष्ट को फ़ोन किया, और बाढ़ के विषय में बताया। उन्होंने मुझसे घर पहुंच कर प्रतीक्षा करने को कहा। कल्ब से दो तीन मिनिट के फ़ासले पर मेरा घर था। रमन बाबू को मैं पहले ही दो ट्रैक्टर तथा ट्राली और अपना पूरा सैनेट्री स्टाफ़ तथा हाथ गाड़ियां और जितने भी मज़्दूर मिल सकें लोगों की सहायता के लिये ले कर पहुंचने के लिये कह चुका था। वैसे पुरानी बस्ती अधिकांशतः ग़रीबों की ही बस्ती है। कुछ ही लोगों के घर पक्के होंगे ,शेष सभी कच्चे घर ही थे।
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         चार पांच मिनिट मैंने कैप्टन विष्ट के लिये प्रतीक्षा की, फिर घर पर उनके लिये संदेश छोड़ कर अपनी सायकिल पर पुरानी बस्ती पहुंच गया। वहां हड़कम्प मचा हुआ था। औरतों बच्चों के रोने चीख़ने की आवाज़ों के कारण किसी से बात करना भी मुश्किल हो रहा था। किसी कारण से कैप्टन बिष्ट तो नहीं आ पाये किन्तु उन्होंने मुझे संदेश भिजवा दिया कि लैफ्टिनैन्ट कर्नल पवार, (जो मिलिट्री के नये स्टेशन कमांडर तथा कैन्टोन्मेंन्ट बोर्ड के प्रेसीडेंट भी थे ) ने कहलवाया है कि विस्थापित लोगों को मिलिट्री के मैस में ले जाया जाये। जब तक बाढ़ न उतरे उनको वहां रहने दिया जाये। मैस नया बन कर तैयार हुआ था। किन्तु पुताई वग़ैरा न होने के कारण उसका उपयोग तब तक आरम्भ नहीं हुआ था। उन लोगों को मैस में रहने की अनुमति देना वैसे नियम विरूद्ध था किन्तु लै. कर्नल पवार ने मैस देकर बड़ी उदारता का परिचय दिया था। कुछ भी हो वहां खर्च होने वाले पानी और बिजली का हिसाब रखना तो कठिन ही था।
         वहां कैन्टोन्मेंन्ट बोर्ड के जितने स्कूल थे, उनमें भी उन लोगों के ठहराने की व्यवस्था मैंने की। घरों में पानी के बीच घुस कर मेरे स्टाफ़ तथा स्वयं मैंने भी लोगों का सामान निकालने तथा सुरक्षित स्थान में पहुंचाने की व्यवस्था की। उन दिनों वहां सभी स्थानों पर नल के पानी की व्यवस्था नहीं थी, इस कारण सारे विस्थापित लोगों के लिये टैंकर से पानी भी भिजवाया।      
        जर्जर वृद्ध, छोटे छोटे बच्चे ,गर्भवती स्त्रियां और बीमार लोग। ऐसे लोगों के लिये हम लोगों ने खाटों का प्रबन्ध भी किया। मैंने अपने सैनेट्री सुपरिन्टेन्डेन्ट रमन बाबू तथा एस.डी.ओ. मधुकर राव के साथ निरीक्षण के लिये जाकर सभी लोगों से उनकी सुविधा असुविधा के बारे में पता लगाया। सभी संतुष्ट थे। जो कुछ भी हम लोगों ने किया वह हमारा धर्म था। वह किसी के ऊपर अहसान नहीं था। और अपने दायित्व को पूर्णतः निभा पाने का सुख एवं आत्मतुष्टि कुछ कम भी नहीं।
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       सुबह छः बजे के बाद हम लोग अपने अपने घर वापिस पहुंचे। सभी सारी रात पानी में दौड़ भाग के कारण थक कर चूर हो गये थे। किन्तु जिनके घर कमर से ऊपर तक पानी में डूबे हुए थे उनकी मुसीबतों और थकान के सामने हमारी थकान कुछ भी नहीं थी।
       बाढ़ का प्रकोप कई दिन रहा. मैं, लै.कर्नल पवार तथा कैप्टन बिष्ट बोर्ड के स्टाफ़ के साथ राउंड पर निकल कर, पुरानी बस्ती में बाढ़ की स्थिति तथा विस्थापित लोगों के लिये किये हुऐ प्रबन्ध सभी का निरीक्षण करते रहे।
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        दो तीन दिन बाद आफ़िस से लौट कर, चाय पी कर मैं बाहर आया ही था कि मैंने देखा कि सामने के स्कूल के बाहर दो तीन ठेले खड़े हुये हैं। मैंने सोचा कि कुछ नये लोग आये हैं, शायद किसी दूसरे गांव से आये हैं। क्यों कि छावनी के तो सभी लोगों को हम सुरक्षित स्थानों में पहुंचा चुके थे। मैं वहां गया तो पता चला कि वे लोग कहीं से आये नहीं थेेेेे ,वरन् कहीं और जारहे थे। मेरे पूछने पर बोले ‘‘हम दूसरी जगह जा रहे हैं। वह ज्य़ादा अच्छी जगह है।’’
        मैंने कहा ,‘‘अब बाढ़ तो लगभग उतर चुकी है, कल से वहां आदमी भेज कर सफ़ाई करवाना है। तब एक दो दिन में अब आप लोग अपने घर ही जायें ,तो....’’
       ‘‘नहीं साहब!’’ एक आदमी ने बड़ी हिकारत से कहा, ‘‘अब हम यहां नहीं रहेंगे , भाई जी हमें दूसरी बढ़िया जगह ले जा रहे हैं।’’
        मैं सन्न, ‘यह भाई जी आखि़र चाहते क्या हैं?’ पर बिना कुछ कहे मैं वहां से चल दिया। तभी एक आदमी दौड़ा दौड़ा मेरे पीछे आया और हाथ जोड़ कर कहने लगा,‘‘हजूर ,साहब! हम लोगों को यहां कोई तकलीफ़ नहीं है, पर भाई जी की बात न माने तो साहब....हुजूर आप हमें माफ़ कर दीजियेगा।’’आगे वह कुछ कह नहीं सका।
        मैंने उसकी पीठ थपथपा दी ,‘‘तुम परेशान न हो भाई, हम तो यही चाहते हैं कि तुम लोगों को तकलीफ़ न हो, बस।’’
       मुझे कुछ पता ही नहीं था कि नगर के दैनिक समाचार पत्र में मेरी और लै. कर्नल पवार की निंदा छपीं थीं। उसमें था - ‘जिस समय चन्दनपुर की ग़रीब जनता गले गले पानी मे डूब रही थी ,मर रही थी। हमारे ये आला अफ़सर पैर फैला कर आराम फ़रमा रहे थे, उन्हें अपनी अय्याशी से ही फुर्सत नहीं थी।’’ अपने काम के प्रति उपेक्षा तक ही अगर बात होती तो भी चलता था. मगर उसमें हमारे चरित्र पर कीचड़ उछाली गई थी. और लिखा था कि अगर नगर के कुछ समर्पित स्वंय सेवक न होते तो पता नहीं उन बेचारे ग़रीबों की क्या दशा होती, वे दूसरे दिन की सुबह भी देख पाते या नहीं। उसमें हम दोनों का नाम भी छपा था। लै.कर्नल पवार के बारे में छपा था कि वे इतने क्रूर हैं कि जब ये ग़रीब लोग अपना खाना बना रहे थे ,तो उन्होंने लात मार कर सारा खाना बाहर फेंक दिया।
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       मधुकर राव ने उस समाचार पत्र के बारे में मुझे बताया, सुन कर दिमाग़ भन्ना गया। शाम को जब आफ़िसर्स क्लब गया, तो जिस मेज़ पर बैठ कर मैं अपने साथियों के साथ ब्रिज खेलता था। उसी पर वह पन्ना खोल कर रख दिया गया था। कुर्सी पर बैठते बैठते मेरी नज़र उसपर पड़ चुकी थी। और मैने जैसे अन्जाने में ही उसे उठा कर एक दूसरी मेज़ पर उछाल दिया। मेरे साथ ब्रिज खेलने वाले मिस्टर गौरव भाटिया मुस्करा कर बोले, ‘‘क्या बात है मिस्टर सिन्हा आपकी शान में बड़े कसीदे पढ़े जा रहे हैं। सारा शहर वाह! वाह! कर रहा है। चन्दनपुर ही नहीं बड़ी दूर दूर तक आपकी यश गाथा गूंज रही है।
       ऐसे में क्रोध प्रकट करना आग को और भी भड़काने की भांति था। उनकी बात सुन कर हंस दिया और बोला ‘‘आपको क्यों जलन हो रही है भाटिया जी? कसीदे मेरी शान में पढ़े जा रहे हैं। तो....’’ 
       मेरी बात काट कर वे बोले, ‘‘ज्यादा उछलिये नहीं जनाब ऐसे ऐसे कसीदे तो हमारी शान में कितनी बार पढ़े जा चुके हैं। आपको तो मैं बघाई देना चाहता था कि आप भी हमारी जमात में आ गये।’’
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        दूसरे दिन सुबह मैं अपने सैनेट्री इन्सपैक्टर रमन बाबू के साथ पुरानी बस्ती सर्वे के लिये गया था। वहां साफ़ सफ़ाई करवा कर लोगों को उनके घरों में वापिस लाना था। मैं सैनेट्री इंस्पैक्टर रमनजी के साथ झोपड़ों के बाहर साफ़ सफ़़ाई करवाने का काम करवा रहा था, काम लगभग हो ही गया था। कि इस्माइल नाम का एक आदमी मेरी ओर दौड़ा और चीख़ कर बोला, ‘‘तू ही सारी मुसीबतों की जड़ है, तेरा तो मैं पेट फाड़ दूंगा।’’ सायकिल पकड़े पकड़े मैं घूम रहा था। बिना उससे उलझे, मैं सायकिल पर बैठा और भाग लिया। शायद दुनिया मुझे कायर समझे। उसने भी समझा था, अपने पीछे आते वीभत्स गालियो के साथ ज़ोर ज़ोर के ठहाके मेरे कानों में गर्म सीसा उड़ेलते रहे ‘‘भाग गया साला ,डरपोक। जा चूड़ियां पहन कर बैठ.....।’’ आज यह सब लिखते लिखते भी जैसे मेरे शरीर में छिनछिनी सी दौड़ जाती है।
        क्या उस समय इस तरह भाग कर मैंने कायरता दिखाई ?
        मुझे लगता है कि अपने गुण दोषों के लिये, सबसे पहले मैं अपने परिवार के प्रति उत्तरदायी हूं। फ़िल्मी हीरों की तरह दस दस गुण्डों को हराने की शक्ति मुझमें नहीं है। संभवतः अपनी असल ज़िन्दगी में वे हीरो भी उन गुण्डों को हरा न पायें। इस्माइल मेरा पेट फाड़ता या नहीं, मुझे नहीं ज्ञात, किन्तु किसी भी दशा में वह भीड़ मेरा साथ नहीं देती। जो कुछ भी भुगतना होता वह मुझे तथा मेरे परिवार को। फिर मैं किसी के हंसने अथवा उपहास उड़ाने से विचलित क्यों होऊं?
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     जैसा कि कोहली साहब ने कहा था, यहां चन्दनपुर आकर सचमुच ही हमारी बिरादरी के कई अच्छे लड़कों का पता चला। एक जगह तो बात बड़ी उत्साह जनक थी। मैं प्रसन्न था कि चलो आभा को एक अच्छा घर वर मिल जायेगा। आभा एक महीने की छुट्टी लेकर आई हुई थी। विभा के कालेज की छट्टियां आरम्भ हो गई तो वह भी आ गई थी।
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     तभी एक हादसा हो गया। एक दिन मैं आफ़िस में काम कर रहा था। कि आभा का फ़ोन आया।घबड़ाई आवाज़ में वह बोल रही थी ,‘‘पापा जल्दी आइये, नागू बाग़ में काम करते करते बेहोश हो गया है। काफ़ी देर से होश में लाने की कोशिश कर रहे हैं। पापा हमने डाक्टर साहब को भी फ़ोन किया है। वे भी अभी तक नहीं आये हैं।’’
        फ़ोन बन्द कर डाक्टर साहब को फ़ोन लगाया। वहां पता चला कि डाक्टर साहब हमारे घर ही जा चुके हैं, घर पहुंचा तो बाहर से ही देखा कंपाउंड में बहुत भीड़ है। अधिकांश नागू माली के ही रिश्तेदार अथवा पुरानी बस्ती के लोग थे। रोना पीटना मचा हुआ था। डाक्टर साहब मेरा ही इंतज़ार कर रहे थे। मुझे देख कर बोले ,‘‘ही इज़ डैड।’’
        मैं स्तम्भित सा खड़ा रह गया। यह क्या हो गया। तीस पैंतीस वर्ष का जवान आदमी क्या हो गया इसको?
        ‘‘हार्ट अटैक, और क्या हो सकता है।’’ गीता बाहर आगई थी। आभा - विभा दोनो ही नागू की पत्नी अर्चना को अन्दर ले जा चुकीं थीं। वह बेहोश हो गई थी। गीता ने बताया कि कुछ दिन पहले नागू अपनी छाती में दर्द बता रहा था। सो उसे मालिश के लिये तेल दे दिया था। और कहीं गैस का दर्द न हो सो उसकी दवा भी दे दी थी। हमने नागू के कुछ सगे संबंधियों को छोड़ कर शेष सभी से जाने के लिये अनुरोध किया लेकिन  कोई भी हिलने को तैयार नहीं था.
         मैंने और गीता दोनों ने गौर किया कि श्री चन्दानी, भाई जी के साथ अपनी कार पर हमारे बंगले के कई चक्कर लगा गये पर अन्दर नहीं आये। बड़ा अजीब लग रहा था। अचानक देखा पुलिस आ गई है। इन्सपैक्टर ने मुझसे पूछा ,‘‘क्या हुआ ?’’
        मेरे बजाय डाक्टर ने उत्तर दिया। ‘‘हार्टफ़ेल !’’
        इन्सपैक्टर ने पूछा ‘‘आपने पुलिस में इन्फ़ार्म क्यों नहीं किया?’’
        स्थिति समझ कर मैं जल्दी से बोला,‘‘मैं डाक्टर से हाल पूछ कर आपको फोन करने ही वाला था। अभी अभी आफ़िस से आया हंू।’’
        इन्सपैक्टर बोले, ‘‘कोई बात नहीं सिन्हा साहब हम ख़ुद ही आगये हैं। बाडी पोस्टमार्टम के लिये ले जाना है।’’
        डाक्टर साहब बोले,‘‘मेरी समझ में पोस्टमार्टम की कोई ज़रूरत नहीं , ये सिंपल हार्टफ़ेल का केस है।’’
       जब नागू के संबन्धियों को पता चला, उन लोगों ने रोना धोना और शोर मचाना शुरू कर दिया कि बेकार में उसकी लाश की चीर फाड़ नहीं की जाये। मैं चुप खड़ा, परेशान था। अब इसके क्रियाकर्म के लिये रूपया हमें ही ख़र्च करना पड़ेगा। मानवता का तकाज़ा था। कैसे कहते अर्चना से कि क्रिया कर्म के लिये रूपये निकालो। संबन्धी भी सभी ग़रीब। और हमारी दशा तो हमी समझ सकते हैं। सारे जीवन क्लर्की करके बिताने वाला व्यक्ति, जिसके पास अभावों के सिवा कुछ न रहा हो, बेटी की शादी के लिये ही उधार जुटाना कठिन हो रहा हो, उसकी कठिनाई कौन समझेगा?
       इंन्स्पैक्टर ने चिल्लाते लोगों को चुप कराया और मुझे एक ओर ले गया, धीरे से बोला, ‘‘सिन्हा साहब! पोस्टमार्टम तो होगा ही। आपके खि़लाफ़ शिकायत आई है कि नागू की बीबी के साथ आपके नाजायज़ रिश्ते हैं , इसलिये आपने उसे ज़हर देकर मार डाला है।’’
       मैं सन्न्। इतना बड़ा इल्ज़ाम? इतना बड़ा झूठ? शिकायत किसने की है यह उन्होंने नहीं बताया पर उसे समझना कठिन नहीं था। फिर भी मैं वे नाम कभी मुंह पर ला भी नहीं सकता। आभा की शादी लगभग तय हो चुकी है। ऐसी बातों से तो बरातें तक लौट जाती हैं। मुझे लगने लगा कि मुझे भी दिल का दौरा पड़ने वाला है। डॉक्टर ने फ़ौरन मेरा रक्तचाप नापा और कोई दवा देकर मुझे अन्दर आराम करने के लिये कहा।
         डॉक्टर की बात सुनकर इन्सपैक्टर मेरे निकट आकर खड़ा होगया, ‘‘सिन्हा साहब! आपको आराम करना है, तो हम आपको केवल पांच मिनिट दे सकते हैं। आपको अभी थाने चलना है। हमें आपसे पूछताछ करनी है। आय एम साॅरी पर मुझे आपको  बताना ज़रूरी है कि आपके खि़लाफ़ सीरियस शिकायत है।’’
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       मेरे आगे दुनिया घूम गई। मेरी दशा देख कर डाॅक्टर ने मुझे कुर्सी पर बैठाल दिया। गीता बाहर ही खड़ी थी। वह बिगड़ गई। ‘‘ऐसे कैसे आप....?’’इन्सपैक्टर ने गीता को चुप रहने का इशारा किया, ‘‘मैडम! मुझे अपना काम करने दीजिये, अगर बात इन गांव वालों के सामने आगई तो, वे इन्हें ज़िन्दा नहीं छोड़ेंगे। और उस औरत की क्या हालत करेंगे कि....आप प्लीज़ इन्हें थोड़ी देर को अन्दर ले जाइये, कुछ खिला पिला दीजिये। पर सिन्हा साहब को तो हमें ले जाना ही है। अगर ऐसे न गये तो...’’
       ‘‘नहीं नहीं इन्सपैक्टर साहब! ये जायेंगे। आप परेशान न हों।़ जब कुछ किया ही नहीं तो डरना क्या?’’कहते कहते गीता ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे उठाया,‘‘चलो उठो, अन्दर चलो, इन्सपैक्टर साहब भले आदमी हैं, जो अन्दर जाने की इजाज़त दे रहे हैं। नहीं तो....’’
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        मैं जैसे होश में नहीं हूं। मुझे अपने डायरेक्टर कोहली याद आ रहे हैं। क्या वे बचाने आयेंगे? चन्दनपुर छावनी जैसा डिफ़िकल्ट ऐरिया, और सिन्हा जैसा ऐफ़िशियन्ट और टैक्टफ़ुल........धरी रह गई सिन्हा की सारी ऐफ़िशियन्सी......और..
        मुझे ढाढस बंधाते हुये, बड़े शान्त स्वर में गीता बोली, ‘‘घबड़ाने की ज़रूरत नहीं है, जब तुमने कुछ किया ही नहीं, तो तुम्हारा कोई भी कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता, बस सोच कर बताओ, इस समय तुम्हारी मदद कौन कौन कर सकता है.’’ गीता जैसे मुझे झिंझोड़ रही हो। और मेरे मस्तिष्क में कुछ नाम उभरने लगे ....
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       डाॅक्टर और पुलिस इन्सपैक्टर ने लोगों को समझा कर, डांट कर नागू की लाश को पोस्टमार्टम के लिये भिजवा दिया। और उन लोगों को भी उनके घर भेज दिया।
       क्यों ऐसा होता है कि जनता के कुछ नुमाइन्दे ही, उनके हितैषी बन कर एक कर्मठ आफ़िसर को अपने स्वार्थों के लिये मोहरा बना डालते हैं। करता कोई है, भरता कोई है, और मरता कोई है। जनता को पता भी नहीं चलता है, कि उन्हंें छलने वाला उनका अपना ही रक्षक है।
       अपने स्वार्थ में, प्रभुत्व पाने के लोभ में आदमी कितना गिर जाता है, कि उसके परिणाम के बारे में सोचता भी नहीं है। नागू की लाश पर उन्होंने अपनी शतरंजी बिसात बिछा दी। चलो, मैं बुरा हूं, उनकी दाल नहीं गलने दे रहा था, मुझसे शत्रुता थी पर उस अभागिनी अर्चना ने उनका क्या बिगाड़ा था, कि उसे भी अपनी घिनौनी राजनीति का मोहरा बना लिया ?
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        इन्सपैक्टर साहब मुझे थाने ले आये। और मुझे अपनी कुर्सी के सामने की कुर्सी पर बिठा देते हैं। मेरी सोचने समझने की शक्ति सारी चुक गई है। अपने को चक्रव्यूह में फंसा हुआ महसूस कर रहा हूं।
        अचानक लगता है, क्या नागू को सचमुच ज़हर तो नहीं दे दिया गया है? क्या ?  मेरे ऊपर बेहोशी तारी होने लगती है....
        ‘संभलो सिन्हा! संभलो....झुको नहीं....तुमने कुछ नहीं किया है...तुम गुनहगार नहीं हो...’’ बहुत गहरे कहीं मेरी अन्तरात्मा मुझे पुकार रही है।
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        तभी अचानक कार रूकने की आवाज़ के साथ पुलिस इन्सपेक्टर खड़े हो जाते हैं, ‘‘आइये मैडम! आइये आपने क्यों तकलीफ़ की....? हुक्म कीजिये...’’
        और मैं संभल जाता हूं। पीछे मुड़ कर देखता हूं, बड़े सधे क़दमों से एस.डी.एम. मेधा विश्वास कमरे की ओर बढ़ रही हैं।
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(१९४१ का चित्र)                                                    


परिचय       
        
 जन्म- 21 मई उन्नीस सौ इकतीस (1931 )में बरेली, यू.पी. में हुआ था।
 शिक्षा-एम.ए. बी.एड. यहां मुम्बई में जूनियर काॅलेज में अðारह साल अघ्यापन।
प्रकाशन:    ‘क्या कहूं...क्या न कहूं’ तथा ‘एक बड़ा सवाल’   बच्चों के लिये लिखे साहित्य पर यथेष्ट प्रसिद्धि भी पाई थी, सबसे बड़ा राक्षस को तृतीय और दूसरी बार (अंधेरे की ओर) को प्रथम पुरस्कार मिला था। बाल साहित्य के कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुये। एक वैज्ञानिक बाल उपन्यास ‘बिन फूलों का जंगल को मिश्रा ब्रदर्स के अनुराग प्रकाशन से प्रथम पुरस्कार मिला था। उसे मैंने 1966 में डाक्टर भाभा के निधन के बाद लिखा था, वापिस आ गया। फिर पूरे पंद्रह साल बाद 1981 में अनुराग प्रकाशन में छपा।
ढेरों आधे घंटे वाले नाटक आकाशवाणी पर आये, पर किसी की भी काॅपी मेरे पास नहीं है। लेखन को कभी भी गंभीरता से लिया ही नहीं। रेडियो नाटकों में भी पार्ट लिया। पर असुविधाओं के कारण छोड़ना पड़ा। वर्षों कुछ लिखा ही नहीं। शौक बहुत सारे थे, पारंगत किसी में नहीं हो पाई।
-0-0-0-
जी-57 गिरिकुंज को.आ. हाऊसिंग सोसायटी लि,
सेक्टर- 8/बी. सी.बी. डी. -बेलापुर
नवीं मुम्बई- 400 614.
फ़ोन: 022-27574986/9006,
E-mail. indralay@gmail.com

4 comments:

  1. आदरणीय शीला जी के बारे में पढते हुए लगा ..जाने कितने वरक पलटते गए .कितनी बातें जो अपनी दादी से सुनी या सासू माँ से सुनी ...लगता है हर समय काल का सच उस समय की स्त्री ही ठीक प्रकार से विवेचित कर सकती है .जीवट की धनी शीला जी तो उन स्वनाम धन्य लेखिकाओं ,कवियित्रियों के सामने एक विशाल स्तंभ कीतरह हैं जिसे हिला पाना उनके वश की बात नहीं ..छपने ,पुरस्कार ,सम्मान की आज के समय की अंधी दौड में शामिल ना होते हुए अपनी रचनाशीलता के चरम पर खड़ी इस महँ विभूति को शत शत नमन .

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  2. शीला जी की अपनी कहानी हर स्त्री की हर युग की कहानी है ,जीवन के उतार चढ़ाव को सुन्दर शब्दों का बाना पहना कर अभिव्यक्त किया है आपने बधाई स्वीकारें .मंजुल भटनागर

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  3. आदरणीय शीला जी अन्धेरे की ओर कहानी मैने शायद जून १९७१ या जून १९७२ पराग विशेषांक में पढ़ी थी आपको पृथम स्थान मिला था मैं पिछले १० वषो से इस कहानी को पराग Archive के माध्यम से पढ़ने का पृयाश कर रहा हूँ कृपया इस कहानी को ईमेल ravindravyas1958@gmail.com पर भेजनें का कष्ट करें

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