Wednesday 13 November 2013

राख में दबी चिनगारी-नवंबर,२०१३




घर यूं तो एक छोटी सी स्पेस दिखाई देती है और घरेलू काम एक ऐसी जिम्मेदारी जिसका अहसानमंद घर का कोई सदस्य नहीं होता । अक्सर घर की चहारदीवारी के भीतर पलने पनपने वाले तनाव, घर के सभी सदस्यों की ज़रूरतों को समय पर पूरा करने का दायित्व-बोध एक कामकाजी महिला का पूरा समय लील लेता है । वह प्रतिभावान हो तो इन दायित्वों के अंबार तले उसकी प्रतिभा के स्फुलिंग कहीं दबे रह जाते हैं । एक महिला उन्हें कुरेदने और तलाशने की कोशिश भी नहीं करती । पर अन्ततः जब सारी ज़िम्मेदारियां निबट जाती हैं और अपनी अस्मिता सर उठाने लगती है तो वह दबी हुई चिनगारी की चमक धीरे धीरे अपनी लौ तेज करती है ।
 
हमारे सामने कई महिला रचनाकारों के नामों की श्रृंखला हैं जिन्होंने पांच दशक पहले अपना लेखन कर्म अपने युवा काल में शुरु किया ! धर्मयुग, सारिका जैसी पत्रिकाओं में अपनी एक जगह भी बनाई लेकिन फिर घर-परिवार के अनचीन्हें तनाव तले या इतर कारणों से पच्चीस-तीस सालों के लिये लेखन के परिदृश्य से पूरी तरह अनुपस्थित रहीं।  एक लंबे अरसे के बाद दोबारा कलम थामकर अपने धारदार लेखन के जरिये कथा परिदृश्य पर नये सिरे से इन्होंने अपनी पहचान कायम की । युवा रचनाकारों की भीड़ के बीच अपनी जगह बनाने, जीवन में अपनी लड़ाई और अपनी अस्मिता तलाशने की कहानी, साथ ही रचनाकार के सोच में बदलाव के लंबे काल फलक से गुज़रना पाठकों के लिये ज़रूर रुचिकर होगा, ऐसा मेरा विश्वास है । मासिक पत्रिका कथादेश में अप्रैल 2013 से इस नये स्तंभ की शुरुआत की गई - ‘‘ राख में दबी चिनगारी ’’ । इस स्तंभ में कुछ वरिष्ठ महिला रचनाकारों के आत्मकथ्य और ताज़ा कहानियां प्रस्तुत हैं । स्तंभ की पहली किस्त में पढ़ें – डॉ. सुदर्षन प्रियदर्शिनी का आत्मकथ्य - हम कभी बीतते नहीं हैं ...... और उनकी ताज़ा कहानी - देशांतर 



‘‘ कुरेदते हो जो अब राख ....‘‘
सुधा अरोड़ा

                                                    (सुदर्शन प्रियदर्शिनी और सुधा अरोड़ा)

      ‘‘........सो किया हमने! घर और काम! काम और घर! बाल बच्चों को पालना-पोसना, बडा करना और दो बेर के खाने से फुरसत मिले तो मठरी, शकरपारे और अचार बनाना! आम का अचार,नीबू का अचार,कटहल-करेले-करौंदे का अचार! ये अचार, वो अचार! जिंदगी अचार का मर्तबान बन के रह गई, जज साहेब! ‘‘कथादश: फरवरी 2013 के अंक में मेरी कहानी की नायिका भागमती पंड़ाइन कहती है. पंड़ाइन बेपढ़ी लिखी स्त्री है. क्या इसलिये उसकी ज़िन्दगी अचार का मर्तबान बनकर रह जाती है? नहीं! जो पढ़ी लिखी हैं, वे कटहल-करेले-करौंदे का अचार शायद न बनाती हों पर वे जैम, पीत्ज़ा, बर्गर और बेक्ड चीनी-जापानी-इतालवी और मेक्सिकन डिशेज़ बनाने में अपने जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता तब तक समझती रहती हैं जब तक उनके पति और बच्चे उनके हाथों के बनाये गये व्यंजनों को उंगलियां चाट चाट कर खाते नहीं अघाते. यही नहीं, उनके घर का रख रखाव सबसे सलीकेदार है , परदों के रंग सोफा सेट की बेमिसाल खादी की अपहोल्स्ट्री से ऐसा तालमेल बिठाते हैं कि मेहमानों की आंखें उसी पर जा टिकती हैं, खाना तो खाना, व्यंजनों को मेज़ पर लगाने का सलीका और मेज़ पर सजे टेबल मैट से खाने की प्लेटें और कटलरी ऐसे मैच करती है कि व्यंजनों का स्वाद दुगना हो जाता है !
     ये कुछ ऐसे अनिर्वचनीय सुख हैं जो अनपढ़ से लेकर पढ़ी लिखी महिला को भी भीतर तक सुख के सागर में सराबोर किये रहते हैं. उन्हें लगता हे, उनके जीवन की सबसे बड़ी सार्थकता इसमें है कि उनके घर की दीवारें, दूसरे घरों की दीवारों से ज्यादा, साफ सुथरी हैं. दीवारों पर ठुके कीलों में दूसरों के घरों से ज्यादा कलात्मक तस्वीरें जड़ी हैं और उन तस्वीरों पर जड़े फ्रेम के इर्द गिर्द धूल का एक कतरा तक नहीं है. इस धूल के कतरे को ढूंढ ढूंढ कर बुहारने में वे अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा खपा देती हैं. चालीस साल पहले की अपनी यादों को ताज़ा करूं तो अपनी छोटी उंगली में पतला कपड़ा लपेटकर मैं खिड़कियों की झिर्रियों के ओने कोने की धूल ऐसे पोंछती थी कि सात माले की इमारत में,घर के नीचे बने गार्डेन से ही, सबसे साफ चमकती हुई, चैथे माले पर हमारी खिड़कियां, दिखाई दे जायें.
       बाद में मैंने सिमॉन द बुवा की किताब ‘सेकेंड सेक्स’ में पढ़ा कि औरतें अपने घर की साफ सफाई में सनक की हद तक अपने को झोंक डालती हैं-यहां तक कि सूरज की रोशनी कमरे में आते ही वे खिड़कियों के परदे खींचने लगती हैं कि सोफे के कवर बदरंग न हो जायें. वे बाहर की राशनी से अपने घर की बैठक के फर्नीचर और परदों को बचाती रहती हैं. इस पूरी प्रक्रिया में वे नहीं समझ पातीं कि उनका अपना ‘भीतर’ कितना बदरंग हो रहा है या फ्रेम के कोनों की और खिड़कियों की धूल मिट्टी बुहारते बुहारते उनके अपने अस्तित्व पर धूल का कतरा नहीं, धूल की तहें पर तहें जमती जा रही हैं. जब अपनी ज़िन्दगी को अपनी हथेली पर रखकर संभाल और दुलार के साथ उन्हें देखना चाहिये, वे अपने को ताउम्र नज़रअंदाज़ ही नहीं, उपेक्षित भी करती रहती हैं जिसका खामियाज़ा उन्हें ढलती उम्र में तनावजनित व्याधियों को झेलते हुए चुकाना पड़ता है.
          माना कि हर स्त्री की प्रकृति और स्वभाव में घर सजाने-संवारने का और रसोई में अपनी उंगलियों की कला दिखाने का एक नैसर्गिक गुण होता है जो उसे अंदरूनी सुख देता है और यह सुख संजोने का , पाने का उसे पूरा अधिकार है, पर उस सुख को स्त्री अपनी अस्मिता पर ऐसे लिहाफ की तरह ओढ़ ले कि अस्मिता का ‘अ’ भी दिखाई न दे, यह स्वीकार्य स्थिति नहीं होनी चाहिये.
         विडंबना यह है कि आमतौर पर होता यही रहा है. जितनी ज्यादा पढ़ी लिखी, जितनी ज्यादा कुषल और सुघड़ गृहिणी-घर, बच्चों और बाहर की जिम्मेदारियों का उतना बड़ा बोझ, उनके सिर पर अगर खुद-ब-खुद नहीं आ पड़ता तो वे आगे बढ़कर, अपनी दोनों बांहें पसार कर उस बोझ को आमंत्रित करती हैं कि आओ, हमारे गले लग जाओ क्योंकि हमारी सार्थकता अन्ततः अपने पति, बच्चों और घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने में ही हैं. हम चेतेंगे सिर्फ़ तब, जब बच्चे और पति हमारी ओर ताकना बंद कर देंगे, तब हम अपनी पहचान की तलाश में अपने भीतर झांकेंगे और वह पहचान हमसे रूठ कर हमारे भीतर के ऐसे कोने-अंतरे में छिप चुकी होगी कि हमें ढूंढे नहीं मिलेगी. कुछ महिला रचनाकार ज़रूर इस पर एतराज कर सकती हैं कि घर गृहस्थी संभालना लेखन में आड़े नहीं आता, आपको सिर्फ़ टाइम मैनेजमेंट सीखने की ज़रूरत है! सच यह है कि समय की कतर ब्यौंत के लिये भी घर के सदस्यों के सहयोग और समझ की ज़रूरत होती है और घर परिवार एक ऐसी संस्था बन चुके हैं जो पुरुषवादी सत्ता के सबसे बड़े हथकंडे हैं! इनके छिपे हुए, लगभग अदश्य पैंतरों को समझने में एक औरत के लिये कभी कभी एक जीवन भी कम पड़ जाता है!
       विदेशों में स्थिति और भी त्रासद है! वहां की भौतिक चकाचैंध हमें चुंधियाती ज़रूर हैं-यह जाने बग़ैर कि वहां हर औरत को अष्टभुजा होना पड़ता है. काम करने को किस्म किस्म की मशीनें मौजूद हैं! पर उन्हें चलाने के लिये एक गृहिणी के एक जोड़ी हाथ की ही ज़रूरत है. पूरे घर पर चाहे कार्पेट बिछा है पर उसकी धूल साफ करने के लिये हिन्दुस्तान की तरह औनी पौनी तनखा पर एक गरीब, अधपेट खाना खाती, पिंजर सी बारीक कामगर नहीं मिलेगी जो कमर झुकाकर, हाथ में यंत्रचालित ढंग से पोंछा फिराते हुए, पूरे घर के फर्श को आईने सा चमका दे. वहां वैक्यूम क्लीनर को खुद ही पावर पाॅएंट से चालू कर, एहतियात के साथ, चारों ओर घुमाते हुए, कार्पेट के ओने कोने में जमी बैठी धूल को बुहारना होगा. बच्चों को स्कूल से लाना है, खुद ही चार पाये वाली लंबी या छोटी गाड़ी को चालित कर उन्हें स्कूल से घर लाने की ड्यूटी निभानी पड़ेगी. एक प्रवासी गृहिणी के पास सुबह की रोशनी आने के साथ साथ कामों की ऐसी अंतहीन सूची होती है कि वह चाहती है कि घड़ी की सुइयां सरकना बंद कर दें और वह घर के हर सदस्य के चेहरे पर अपनी मशक्कत के पुरस्कार स्वरूप प्राप्त मुस्कान देख सके! वह मुस्कान कई बार दिखाई न भी दे तो गृहस्थी के पहियों को दोनों हाथों से ठेलने वाली गृहिणी, उस मुस्कान को कल्पना में आंक कर, बरसों-बरस घर की गाड़ी को खींच ले जाती है। पर आखिर कभी तो वह स्त्री, जो सिर्फ गृहिणी होने की कलगी मात्र से खुश रहती चली आई है, अपने इंसान होने को भी पहचानने की कोशिश करेगी। पुरुष का सारा दमनचक्र, स्त्री के अपने को इंसान के रूप में पहचानने की कोशिश के बाद ही अपनी औजारों की धार को सान पर चढ़ाता है।
एक प्रवासी गृहिणी के पास सुबह की रोशनी आने के साथ साथ कामों की ऐसी अंतहीन सूची होती है कि वह चाहती है कि घड़ी की सुइयां सरकना बंद कर दें और वह घर के हर सदस्य के चेहरे पर अपनी मषक्कत के पुरस्कार स्वरूप प्राप्त मुस्कान देख सके! वह मुस्कान कई बार दिखाई न भी दे तो गृहस्थी के पहियों को दोनों हाथों से ठेलने वाली गृहिणी, उस मुस्कान को कल्पना में आंक कर, बरसों-बरस घर की गाड़ी को खींच ले जाती है। पर आखिर कभी तो वह स्त्री, जो सिर्फ गृहिणी होने की कलगी मात्र से खुष रहती चली आई है, अपने इंसान होने को भी पहचानने की कोशिश करेगी। पुरुष का सारा दमनचक्र, स्त्री के अपने को इंसान के रूप में पहचानने की कोशिश के बाद ही अपनी औजारों की धार को सान पर चढ़ाता है।
         हमारे इस नये स्तंभ की पहली रचनाकार -अमेरिका के क्लीवलैंड शहर की निवासी लेखिका सुदर्शन प्रियदर्शिनी यूं ही नहीं कहतीं कि-‘‘पांच पांच नौकरों को तड़का लगाकर एक सुदर्शन नाम की खिचड़ी बन जाये तो कैसा लगेगा? नई नई अपेक्षाएं जो पहरावे से लेकर व्यक्तित्व तक को चुनौती देती आत्मा पर ठक-ठक पत्थरों सी बजेगी तो चोट तो लगेगी ही न! ’’
         उम्र की सांध्य बेला में स्त्रियों को व्यवसाय की ओर, सामाजिक कार्यों की ओर, अपने छूटे हुए लेखन कर्म या गायन की कला की ओर, चित्रकारी और लोककला की ओर, बीते हुए कई बरसों की संजोयी टीस के साथ लौटते देखा जा सकता है. कुछ एक को ही सफलता हासिल हो पाती है, अधिकांश एक जद्दोजहद में, अपने खोये जा चुके बरसों की कसक के साथ, कर्म के अनुपात में फल के दसांश को भी सिर माथे लेती हैं क्योंकि वह भी उनके गुम हो चुके अस्तित्व और उनकी पहचान को एक तिनके का सहारा तो देता ही है.                                                                            000
       पिछले सात सालों में, अपनी उम्र के सात या आठ दशक पार कर चुकी, कुछ ऐसी वरिष्ठ महिला रचनाकारों से परिचय हुआ जिन्होंने 1960 से 1970 के बीच, अपने युवा काल में, अपने समय की सर्वाधिक चर्चित पत्रिकाओं-धर्मयुग, सारिका, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में अपनी रचनाओं से अपनी उपस्थिति दर्ज की पर अपनी शादी के बाद, घर गृहस्थी में पूरी तरह रम जाने के कारण, बच्चों के बड़े होने तक लेखन से किनारा कर लिया और पच्चीस से तीस साल तक गृहस्थी की गाड़ी को कुशलता से खींचने के बाद जीवन की सांध्य बेला में वे अपने आप को तलाषने निकलीं, जब प्रतिभा के सारे चमकीले ज़हीन रेशे, उंगलियों की फांकों से रेत की तरह भुरभुराकर गिरने को होते हैं. तब अपने को समेटने की एक आखिरी कोशिश में ये कलाकार सृजनशील महिलायें फिर से अपनी काबलियत के रंगीन ताने बाने को गूंथने में लग जाती हैं. चूंकि मैंने भी एक लंबे अरसे तक लेखन से किनारा कर लिया तो इस चुप्पी और बंजर समय की चोटों से वाकिफ हूं। इस दौरान मेरा पहला परिचय हुआ- मुंबई निवासी रचनाकार शीला इंद्र से, जो अपने युवाकाल में बच्चों की कहानियां लिखने वाली, पराग और नंदन जैसी पत्रिकाओं की, बेहद पसंदीदा लेखिका थीं. 75 की उम्र के बाद कम्प्यूटर पर टाइप करना उन्होंने सीखा और लगभग पांच सौ पन्नों की किताब ‘‘क्या कहूं , क्या न कहूं’’ लिख डाली. इसकी शुरुआत उन दिनों कथादेश में चल रहे मेरे स्तंभ ‘‘औरत की दुनिया‘‘ में चलती एक समानांतर श्रृंखला-‘‘हमारी विरासत: पिछली पीढ़ी की औरतें ’’ के लिये सौ साल पहले की औरतों पर एक संस्मरण ‘‘ कांतर से यूनियन जैक ’’लिखकर शीला जी ने की थी.  
           ऐसी कई प्रतिभावान वरिष्ठ महिला रचनाकारों से जब साबका पड़ा तो लगा-यह तो एक बेहद काॅमन फेनॉमिना है. मन हुआ कि इसे एक सूत्र में पिरोया जाये और उसके बहाने से भारतीय समाज की इस अनिवार्य और त्रासद विसंगति को रेखांकित किया जाये. जब साहित्य का पूरा परिदृश्य , तथाकथित ‘युवा’ महिला रचनाकारों के नयनाभिरामी चित्रों और ‘बोल्डनेस’ के नाम पर देहवादी लेखन से आच्छादित हो, हिंदी साहित्य के हमारे पाठक, लंबे जीवन के अनुभवों के ताप से सिंकी ज़िंदगी के नुकीले दंश झेल चुकी, इन अनुभवी उंगलियों की रचनात्मक क्षमता पर भी गौर फरमाएं जिनके लिये लेखन और सिर्फ लेखन पहली आकांक्षा है, निजी महत्वाकांक्षाएं जिनके लिये सबसे पिछली पायदान पर है.
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        अब इस स्तंभ की पहली रचनाकार सुदर्शन प्रियदर्शिनी की ओर मुखातिब हुआ जाये. तीन चार साल पहले सुदर्शन जी एक दुपहर अचानक मुंबई में मेरे घर पर मिलने चली आईं. लेखन का एक सा जुनून पालने वाली दो अनजान औरतें जब मिलती हैं तो लेखन से इतर भी बहुत कुछ बांट लेती हैं. ज़िन्दगी से ज़्यादा, ज़िन्दगी किन मोड़ों पर, हाथ से छूट गई-उन खाई खंदकों की बातें! क्या लिखा और कहां छपा से ज्यादा क्या नहीं लिखा जा सका, न लिख पाने की उस टीस की बातें! दुनिया के दो धुर कोनों में रहकर भी, एक ही ज़मीन पर खड़े , एक से समानांतर विषाद की बातें! वे मुझे जाते हुए दो उपहार दे गईं-एक चटख लाल रंग की लिपस्टिक, जो मैंने कभी इस्तेमाल नहीं की और दूसरा अपना कविता संग्रह जिसे मैंने एक दिन पूरा पढा़ और महसूस किया कि कुछ तो है, इस लेखिका में जो अपनी ओर खींचता है. अमेरिका पहुंचने के बाद भी वे कभी कभार फोन करती रहीं.
       जुलाई 2012. शिकागो. अपनी बिटिया के पास एक महीना बिताने गई थी. सुबह का नाश्ता खाना निबटाने के बाद बिटिया अपने काम में व्यस्त हो जाती और समय सांय-सांय सा करता मेरे इर्द गिर्द आकर खड़ा हो जाता. कुछ लिखने का मन बना नहीं पा रही थी. साउंड प्रूफ, विंड प्रूफ, एअर टाइट कांच की खिड़कियों के भीतर तापमान नियंत्रित कमरे में ऐसा लगता जैसे शोर, प्रदूषण और हवाओं के साथ साथ, दिल और दिमाग को भी नियंत्रण के साथ संकुचित किया जा रहा है. ऐसे में सबसे सुकूनदेह जगह थी-अपार्टमेंट की खुली छत, जहां ठंडी हवाओं के तेज़ झोंकों के साथ तेज़ चमकते सूरज की चुभती हुई, त्वचा को झुलसाती हुई गर्मी भी थी. एक साथ ठंडी हवा और गर्मी की चुभन का वह अहसास कहीं मुझे अस्तव्यस्त कर रहा था. छत पर पड़ी हुई लाउंज चेअर पर ज्यादातर बीस से तीस की उम्र की युवा महिलाएं थीं. बिकनी पहने अपनी गोरी त्वचा को धूप दिखाकर टैन करती हुई. चेहरे पर गीला तौलिया डाले सुस्ताती या अपने टैबलेट कम्प्यूटर पर अपनी उंगलियां फिराती हुई. मैं एक कोने में एक लाउंज चेअर पर लेटकर अपनी प्रवासी मित्रों से फोन पर बात करती रहती. सुदर्शन जी शुरु में बड़े संकोच और माफीनामे के साथ फोन करतीं- जिसमें पाश्चात्य औपचारिकता की छाप स्पष्ट थी. हममें बहुत सी समानताएं थीं. हमारी एक सी बोली-बानी! हम दोनों लाहौर की पैदाइश! हम दोनों की बातचीत में अचानक लहौरी पंजाबी की कहावतें मुहावरे शामिल हो जाते। जो सुख छज्जू दे चैबारे, ओ सुख बलख न बुखारे, मां पई चूल्हे (मां गई भाड़ में)-अक्सर सुदर्शन जी नाॅस्टैलजिक हो जाती! विदश में बशुमार सुख हों पर जैसे ही ज़िंदगी में कोई कांटा आ चुभता है, फौरन अपना छज्जू का चैबारा याद आ जाता ह ।
        लगा कि कितना कुछ है जो फोन के स्पीकर से मुझ तक पहुंच रहा है-दबे ढके शब्दों में, सबकुछ छिपाकर भी बहुत कुछ खोलता हुआ सा! ऐसे जैसे शब्दों के मोतियों की बारिश हो रही है और सन्नाटा एक झंकार के साथ टूट रहा है! और यह कोई पहली बार नहीं हो रहा था! कितने ऐसे सितारे टूटते देखे, कितनों को कंधा दिया कि हल्के हो लो! ज्यादातर औरतों को एक कंधे की जरूरत होती है और यह कंधा ही उन्हें ताउम्र नहीं मिलता! यहां तो हम दोनों एक दूसरे को अपना कंधा दे रहे थे! भारतीय संस्कार और पश्चिमी तौर तरीकों का बेहद सुलझा हुआ विश्लेषण उनके यहां था. अपनी तकलीफ को पहचान पाने और उसे कहानी कविता के जरिये निकास देने का सलीका भी. उनकी सुनाई एक घटना मेरे भीतर अक्स हो गई। 1998 में सुदर्शन जी का जीवन के पच्चीस साल हंसी खुशी बिता लेने के बाद अपने बेहद प्रिय सुदर्शन पति से तलाक हुआ और छह महीने, एक साल बाद ही उन्होंने कभी खुद कहा, कभी बच्चों से कहलवाना शुरु किया कि चलो, फिर से पहले सी ज़िंदगी साथ-साथ शुरु जाये। सुदर्शन जी मना करती रहीं पर जब उनकी समझ में नहीं ही आया तो उन्होंने कहा- देखो, अब मैं बाकायदा लिखित रूप में अपनी फुलटाइम मेड की नौकरी से इस्तीफा दे चुकी हूं , अब फिर से उस नौकरी को जाॅयन करने का मेरा कोई इरादा नहीं है । इस बार चोट सही जगह हुई और पति ने समझ लिया कि वह जो अष्टभुजा बनकर घर बाहर, रसोई लाॅण्ड्री, लाॅन गैरेज सब संभाल लेती थी, अब अपने को तलाशना चाहती है और इस तलाश के अधिकार को तलाक को अपदस्थ कर छीना नहीं जा सकता। .....पर जब मैंने सुदर्शन जी से अपनी इस योजना के बारे में शेअर किया तो उनका आत्मविश्वास डगमगा गया-अपने बारे में सीधे सीधे कैसे लिखा जा सकता है, कहानी कविता में तो लिखती ही रही हूं।...अगस्त में मेरे भारत लौट आने के बाद उनसे लिखवाने का मेरी मान मनौवल जारी रहा। अपने लेखन पर उन्हें गुमान तो दूर की बात, यकीन भी नहीं था। ई मेल पर कहतीं-मैं  कोशिश करूंगी पर इस मामले में जरा कच्ची हूं! कम्प्यूटर से मेरी दोस्ती न के बराबर है। मैंने जब लिखा-सच है सुदर्शन जी, आम तौर पर औरतों को अपनी ताकत का, लियाकत का, खूबसूरती का पता ही नहीं होता! तो उनका उत्तर था-‘‘ हाँ आप ठीक कहती हैं. पर युगों की दासता की अभ्यस्त शापित हड्डियाँ क्या अब नया मोड़ ले पाएंगी? अब भी न चाहते हुए अपना सिर ऐसी ऐसी स्थितियों में फंसा लेती हैं जहाँ से बस निपड कर ही निकलती हैं. अपने आप को स्वाहा करने की लत जो पड़ी है और समाज की बनी परिपाटियों को तोड़ कर निकलने की और मन की संचित शांति को भंग करने की कूवत कहाँ से बटोरें?, फिर भी आप कान पकड़ कर झिन्झोड़ती रहें तो शायद हिम्मत बने!’’
अन्ततः अगस्त से यह आत्मकथ्य टुकड़ों-टुकड़ों में लिखा जाता रहा और पिछले महीने जब वे भारत आईं तो मुंबई अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे के पास होटल हिल्टन के कमरा नं 202 में मैं उनसे मिलने गई और 19 फरवरी को वहीं इसका अंतिम पैराग्राफ लिखा गया! यही वजह है कि यह स्तंभ घोषणा के बावजूद मार्च अंक में नहीं जा पाया।  
इस बीच मैंने ‘वागर्थ‘ में उनकी कहानी पढ़ी-‘सुबह’! बेहद कसे हुए शिल्प में असरदार कहानी। ऐसा कसाव हिंदी की बहुत कम लेखिकाओं में है। अक्सर कहानी कहते कहते हम ब्यौरों की रौ में बह जाते हैं और पाठक को भूल जाते हैं जो अन्ततः इन बोझिल विवरणों को झेलेगा। ऐसा कसाव मुझे दीपक शर्मा में तो अद्भुत रूप से दिखाई देता है। उनकी एक कहानी थी-‘हथेली पर दही’ और अभी कथादेश के मार्च अंक में ‘गेम चेन्जर’-एक वृहद् कथ्य को सिर्फ तीन पन्नों में समेट कर कहने की कला अपने आप में अनोखी है। यही विशिष्टता सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी की कहानियों में है। सन् 2013 में उनकी तीन कहानियां हमारे सामने हैं-‘समावर्तन’ के फरवरी अंक में ‘क्वांरी बहू’, वागर्थ के मार्च अंक में ‘आचार संहिता’ और अब कथादेश में ‘देशांतर’!   
      आज हिंदी साहित्य का परिदृश्य महिला रचनाकारों को लेकर एक ओर काफी अनुदार दिखाई देता है, दूसरी ओर महिलाओं को शुरु से ही एक खास किस्म की रियायत दी जाती रही है। स्नोवा बार्नो के नाम से जो रचनाएं छप कर चर्चा में आ गयीं, किसी पुरुष रचनाकार के नाम से छपतीं तो इतना ध्यान न खींच पातीं। महिला रचनाकार का नाम होना एक संपादक का रचना के प्रति आकर्षण जगाने के लिये काफी है। इसके अलावा जब 45 से 50 की महिला रचनाकार, अपनी 25 साल पुरानी तस्वीरों और देहवादी खुलासों के साथ साहित्य में युवा लेखन के बैनर तले एक धमक के साथ आ रही हैं, युवा कहलाये जाने की खब्त में पैंतालिस से पचास के बीच की महिला रचनाकार भी परिचय में अपना जन्मवर्ष कभी नहीं लिखतीं पर जन्मतिथि लिखना नहीं भूलतीं ताकि उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं तो मिलती रहें और उम्र के बारे में पच्चीस साल पहले की तस्वीरंे पाठकों को एक भुलावे में रखने में समर्थ हो जायें। बेशक यह सारी कवायद एक कमज़ोर या आत्मविश्वासहीन रचना को ढकने-छिपाने की मशक्कत है जहां रचनाकार न समाज को कुछ देना चाहता है,न साहित्य के खजाने में कोई बढ़ोतरी करना चाहता है। उसका एकमात्र उद्देश्य अपनी रचना के माध्यम से अपने आप को प्रोजेक्ट करना है। इसलिये आज साहित्य की वह उपादेयता भी नहीं रह गई जो आज से चार पांच दशक पहले हुआ करती थी। लेकिन ऐसे माहौल में भी कुछ ईमानदार सजग संपादक मौजूद हैं जो महिलाओं के चित्रों से ज्यादा रचना को महत्व देते हैं वर्ना वागर्थ, वर्तमान साहित्य, समावर्तन, कथादेश जैसी पत्रिकाओं में उम्र के सात दशक पार कर चुकी महिला रचनाकारों को प्रकाशन के लिये इस ‘युवा’ जमात की कतार के पीछे खड़ा रहना पड़ता। कल ही उन्होंने, अपनी कुछ तस्वीरें मेल से भेजते हुए, फोन पर मुझे पूरी मजबूती के साथ कहा कि वे अपनी आत्मकथा लिखने के बारे में सोच रही हैं। इस बात पर एक स्माइली लगाया जा सकता है।

गर्व के साथ मैं प्रस्तुत कर रही हूं - सुदर्शन प्रियदर्शिनी का आत्मकथ्य-हम बीतते नहीं हैं ......

ई मेल:  sudhaarora@gmail.com

  आत्म कथ्य
हम कभी बीतते नहीं हैं ......
0 सुदर्शन प्रियदर्शिनी
                                                         

                                                         (सुदर्शन प्रियदर्शिनी - चित्र - १९७०)     
 
मेरा यह आत्म कथ्य मेरे लिए अग्नि परीक्षा थी क्यों कि मैं कभी सोच भी नही  सकती थी कि मैं कभी अपना आत्मकथ्य लिखूंगी या मेरे कथ्य  का कोई महत्व हो सकता है. जो ऊँचाई आत्म कथ्य की नींव होनी चाहिए, जिसे देखने के लिए कोई ऊँची-गर्दन कर ऊंचा हो, वह मुझ में कहाँ . आत्म कथ्य की ऊँचाई उपलब्धियों के पायों पर खड़ी होती है , मेरे पास जिस का शायद एक पाया भी नही है, पर सुधा (अरोड़ा) जी ने न जाने कैसे मुझे उत्साहित कर -कर के मुझे  पायों पर खड़ा कर दिया और मैं अंदर से डगमगाती -घूमती , जैसे-तैसे इस कथ्य  को खड़ा कर पाई . यह सुधाजी के आग्रह ,स्नेह और  उत्साह की ठोक थी जिस ने अपनी थपथपाहट से एक कच्चे घड़े की मांद भर दी . यों भी उन से बात कर के हमेशा लगता है जैसे मैं खुद अपने से बतिया रही हूँ .
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           इस कथ्य को बचपन की उन अर्धोन्मीलित आँखों से देखूं तो आज भी घर की तीसरी मंजिल की छत पर खड़ी होकर दूर-बहुत  सारा शोर , आग की लपटे और छतों पर  सोये हुए लोगों की उठा-पटक मेरी उन निंदियाई आँखों को फिर से मटियाला कर देती है . पिछवाड़े में फुस हो गया बम और घर के लोगों की आपसी फुसफुसाहट से उस दहशत का अनुमान लगाया जा सकता है  जो सायास मेरी बचपन की मासूमियत से छिपा कर रखने का प्रयास होता था . आज उस का विकसित रूप मेरे सामने है . मनुष्य का एक संकीर्ण , साम्प्रदायिक , स्वार्थ और अहम से पिटा हुआ रूप जो आज भी सरहदों पर कराह रहा है . क्या ये सब कभी मुझ में से बीत सकता है ! न बीतता है , न रीतता है .
         हम कभी बीतते नही हैं !  बीतना कभी अतीत नही होता ! उल्टा वह कहीं अंदर ही अंदर वर्तमान बन कर किसी कोने में सुलगता रहता है .  हमें न जीने देता है न मरने .  हम उस बीतने की जुगाली करते करते , अतीत को अतीत की तरह दफन नही कर पाते और हमारे वर्तमान को उसी का ग्रहण लगा रहता है . उस की  चुभलाहट हमें एक अन्यतम सुख भी देती है ...चाहे उस के नीचे कहीं पीड़ा के अम्बार लगे हों . 
     मैंने गलत को गलत कहा तो बाहर हो गई . प्यार को केवल प्यार समझा और किया तो अलग हो गई . दो दूनी पांच नहीं , दो दूनी चार का ही पहाड़ा पढ़ा - तो बेदखल कर दी गई .  जो जैसा था उसे वैसा ही समझने की भूल हो गई . इस लिए आज परकटे क्रौंच की तरह कहीं कोने में बदबदा रही हूँ . अधमरे पंख बीच-बीच में फड़फड़ाते हैं पर उड़ नही पाते .  कभी कभी भीड़ घेरती है और इंतजार करती है कि कब पंखों का फड़फड़ाना  बंद हो और उसे उठा कर बाहर फेंक दिया जाय और कोने को साफ-सुथरा कर के , दो दूनी पांच का पहाड़ा उस पर बिठा दिया जाय .
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      जन्म लाहौर में . बचपन बीता शिमला में . पिता की सरकारी नौकरी घुमाती  रही - शहर दर शहर . पांच साल ग्वालियर (मध्य-प्रदेश ) में बिताये . फिर वापसी हुई . दो एक साल बीच अंतराल के बीते अम्बाला में और फिर स्थायी रूप में चंडीगढ़ . सन् 1958 से ले कर आज तक. यही पड़ाव रहा .  बीच में जमीनों के टुकडे़ हुए - एक पंजाब , हरियाणा और  हिमाचल बन गया और चण्डीगढ़ उस सब से बाहर अपने केंद्रीय अस्तित्व को ले कर अपने घर-घाट से बाहर  हो गया. उसी तरह मैं भी अपनी नौकरी और शादी के चक्कर में खानाबदोशी का जामा पहन कभी धर्मशाला, कभी लुधियाना ,  कभी चम्बा , नाला गढ़ , सोलन -- घर और बसेरे बदलती रही दृ अंततः देश  निकाला मिला सन् 1982 में . यह बनवास अब तक जारी है और अब तो शायद आखिरी सांस तक रहेगा . 
           अपने बारे में कहना या बतियाना मुझे कभी नही रुचा , और सच बताऊं तो  कुछ बताने लायक है भी नही .  अनाम - गुमनाम  जिन्दगी  बितायी है ! इतने वर्ष अपने आप से भी छुपती रही हूँ . परिस्थितयों  से समझौता करती .  उनके सामने  घुटने टेकती . अपनी डिग्री , अपने अनुराग , अपनी प्राथमिकतायें छुपाती ! अपने-आप से भागती रही हूँ .  पच्चीस साल की ये भाग-दौड़ अब अचानक ठहर गयी है .  यह भाग मुझे ही लताड़ती और निगलती रही  है .अपने आप की पहचान को दबा कर रखा . सायास कहिये या विवशता या मूर्खता . पर अब पिछले पांच -छह सालों से अपने सपनों को धूप दिखाने लगी हूँ . और यह धूप दिखाना बहुत अच्छा लगता है . सच !
          पर अंदर ही अंदर सालती है अपनी मिट्टी की याद . सब कुछ है यहाँ - जिसे दुनियाई पूर्णता कह सकते हैं . पर मेरे मन की धर्मशाला और चेरापूंजी यहाँ चाय नही उगा सकती थी. मेरे रेगिस्तानी रेहटों की रुनझुन -राजस्थानी संगीत पैदा नहीं कर सकती थी . इस नये नक्शे की लकीरें , मेरा अपना भूगोल नही बना सकती थी.  मैंने नक्शे की राजधानियां नही बदलीं , केवल घर की चैखट नापती रह गई .  यहाँ त्रिवेणी की रहस्यमयी तरंगों का निमंत्रण नहीं था , न रामेश्वरम का  सूर्योदय या सूर्यास्त . बड़े बड़े समुद्रों में बेड़े की तरह डूबने वाला सूरज तो था  पर मेरे देश की-सी पौ फटने की लाली नही थी . यहाँ दूरन्दाज घरों में सिमटे हुए बच्चे थे , उन का संयमित व्यवहार - मां - पिता की औपचारिकताएं , सभ्यता की ओढ़नी थी पर वह तख्त पोश के सामने वाली कुर्सी पर बैठी माँ का ममता की जुगाली करता हुआ आग्रह नहीं था जो पूछ रहा था ...
           क्यों जा रहे हो !
           कब तक लौटोगे !
        इन प्रश्नों के जवाब पाए बिना ही , वे सल्तनते ढह गई और मैं यहाँ त्वरा में बंधी , मशीनों से चालित दिनचर्या में चार पहियों वाले हिंडोले में दिन भर झूलती व्यस्त रहती . इधर से उधर . उधर से इधर . ऐसा लगता है कि एक रोशनी की लकीर होती है जिसे हम आप ही मुट्ठी में बांध कर , ढक कर अनदेखा कर देते हैं , जब तक मुट्ठी खुलती है वह रोशनी मर चुकी होती है .
          बचपन में जाऊं तो लगता है कितनी जल्दी हम अपने निर्णय - निर्णीत कर लेते हैं . आज तक यही लगा कि हमारी माँ  ने कभी हमें प्यार नहीं किया . कितना बड़ा आरोप है -जो शायद परोक्ष अपरोक्ष रूप में उन तक भी पहुंचा होगा और उन का दिल भी कितना दुखा होगा ! बकरे का सर गया और खाने वाले को स्वाद भी नही आया - जैसा !
          आज सोचती हूँ तो लगता है कैसे करती वह प्यार या उसे जता भी कैसे पाती . घर में नौ बच्चे अपने , फिर चाचा-चाची के बच्चे , पास-पड़ोस के बच्चे , जिन का आधा लालन-पालन उसी एक आंगन में होता था . उस पर घर , बीमार सास , ससुर , ननद-देवर , ये सब मांगने वाले रिश्ते - देने वाला कोई नही . उन सब के साथ या अपने से प्यार करना - पति से प्यार करना ..आखिर कितना प्यार हो -जो बांटा जा सके .  फिर सब का अधिकार -सब  की  डांट -फटकार, उपेक्षा, जरूरतें.  इन सब के बीच कहीं एक भी कृपा दृष्टि बरसाने वाला कोई  नहीं , बांहों में भरने वाला नहीं . पिता का स्वरूप सामने आता है तो  माँ  के सन्दर्भ में एक अभिमानी-उन्नत  सा अलग थलग व्यक्ति .  वह कैसा प्यार करते होंगे . वही रात के नियमित रोला-रोली , दैहिक उछाड़- पछाड़ और फिर सिरहाने-पैताने , सृष्टि-निर्माण करने वाला प्यार . नोचने-खसोटने वाला अहसान भरा मनुहार ! दही-बिलोने जैसा , मधानी-पिरोने जैसा प्यार ....मक्खन निकाला और छोड़ दिया !  इस लिए प्यार नाम की चीज हमें नहीं मिली ! नदी थी , तट था , पर मछेरे वाला जाल नहीं था जो पकड़ कर अपने जाल में लपेटता और जिबह करने से पहले दुलराता . यहाँ मछेरा स्वयं रोज जिबह होता था.
           हाँ , माँ को इन सब के बीच भी एक चीज से प्यार था ! बेहद प्यार ! कह सकते हैं घर से नहीं, - घर की करीनगी से ! माँ के लिए चीजों का नियमित होना , अलमारिओं के बीच रखे सामान की एक तरतीबी , एक विशिष्ट दिशा - दशा , एक सार्वभौम दृश्य , एक दैविक स्वच्छता जैसा झिलमिल सितारों सी झलक  जैसा सलीका ! यही झलक थी जो उन की आँखों में चमक और चेहरे पर स्मित-भरी सकून की लाली छिडक देती थी .
           पिता के व्यक्तित्व की ऊँचाई आज भी एक हौव्वा बन कर रातों को जगा जाती है . दिन भर एक डर सा समाया रहता है . जैसे आज भी कहीं से निकल कर हमें पकड़ कर झिंझोड़ देंगे और डांट कर कहेंगे - यह क्या किया ! यह क्यों किया ! आज भी कोई काम करने से पहले उन का बुलंदियों सा ऊँचा व्यक्तित्व , चारों तरफ से घेर लेता है .  उन की  दी हुई हिदायतें , अनुशासन और अपने अहम को मार कर जीने की आदत आज भी अपने आप में सहेज कर रखती है .
           इन्हीं सब विरोधाभासों में कहीं लिखने का शौक पैदा हो गया जो दबे पांव आया और धीरे-धीरे जैसे गले की घंटी बन गया . अब तो वह  मेरे ब्रह्मांड  में नगाड़ों की तरह गूंजता है . जैसे वह मेरी साँस है . घर में कहीं कोई वातावरण नहीं , किताबें या मैगजीन नहीं - ले दे कर कोर्स की किताबंे और उन्ही की तहों में कहानी ,उपन्यास पढ़े जाते . जिस का पता कभी किसी को नही चला क्यों कि अज्ञानता थी . बस पढाई की आड़ में अन्यथा पढ़ना चलता रहा . यह अपने आप से रोमांस करने जैसा था और यह रोमांस खूब चला . इसी रोमांस के तहत महादेवी , सुमित्रानंदन पन्त , जयशंकर प्रसाद , निराला , अमृता प्रीतम ( जिन से परिचय ‘साप्ताहिक  हिंदुस्तान ‘  के माध्यम से हुआ ).  स्कूल , कालिज की लाइब्रेरी ने बहुत हाथ बटाया . मैं तो एक अदृश्य कल्पना लोक में डूबी रहती - अंगीठी पर उबलता दूध उफनता. तवे की रोटी जलती , पानी का गिलास हाथ में लिए मुंह बाये खड़ी रहती ( भूल जाती कि किस के लिए है ) और कई बार तो घर आते - आते रास्ता भूल जाती जब होश आता  तब बीच सड़क पर खड़े हो कर अपने आप को झिंझोड़ती या चुटकी काटती कि कहाँ हूँ और जोड़-तोड़ कर रास्ता बनाती और घर पहुंचती और फिर देहरी पर तकरार -
कहाँ गयी थी ?
इतना क्या काम था जो इतनी देरी हुई ?
           वह समय ऐसे तिरोहित हो गया जैसे कभी घटा ही नहीं . पन्ने पर लिखी मैजिक इबारत की तरह . जिन्दगी जैसे एक स्लेट हो , लिखो और मिटा दो . पर स्लेट - मैली हो ही जाती है और  यह तो रहता ही है कि स्लेट अब कोरी नहीं है .  धुंधलके की तरह कुछ मिचमिचा सा  कहीं कौंधता तो रहता ही है . यों सोचा जाय तो तीन बच्चे जन कर चालीस साल की जिन्दगी बिता कर कोई कुछ पलों में सब कुछ ताक पर रख कर भूल जाय --  अजीब है न ! पर कभी कभी सर्दी के दिनों में जब सुबह उठती हूँ तो कमर कसमसा कर जैसे चीख पड़ती है तब लगता है शायद उस तरफ की रजाई उघड़ी रह गई है पर नहीं - वह तो पन्द्रह साल पहले की कोई निशानी चरमरा उठी है जिस का पटाक्षेप हो चुका है .  कभी-कभी कोई कमी ही उसे याद दिलाती है नहीं तो क्या याद करें उन कच्ची दीवारों को जो कभी- कभी भरभरा कर अपने में दबोच लेती हैं, धराशायी कर देती हैं --  छलनी करने की हद तक - पर फिर भी जब वह सब बच्चों द्वारा ,या कभी परायी लड़की के हाथों दुहराया जाय तो जरा ज्यादा ही दुखता है .
             जब यहाँ क्लीवलैंड , अमेरिका में आई तो लगा कि किसी गलत स्टेशन पर उतर गई हूँ जहाँ का कोई रास्ता पहचाना  हुआ नहीं है . जहाँ कोई व्यक्ति जानने वाला नहीं है  और गाड़ी जा चुकी है ! जो कुछ था उस गाड़ी में चला गया . अब कैसे लौटाऊं अपनी गाड़ी - कैसे लौटूं घर या आगे कहाँ जाऊं और कैसे जीऊं- मन की दीवारों पर जो टंगा था किसी ने बड़े लाघव से उतार लिया था . तब जैसे-तैसे  अपने आप को उठाया और अपने ही गोद में प्यार से सहला कर बिठाया और अपने आप को दिलासा दिया कि इन्हीं  दीवारों के बीच घर बनाना  होगा , इन को ही आबाद करना होगा .
             मुझे दुनियावी बातों से हमेशा वितृष्णा सी रही है . पैसे की बात होती तब , रिश्तों की बात होती तब , जैसे लगता था कि क्यों लोग बेजा की बातों पर अपनी शक्ति खर्च कर रहे है .  उन सब बातों का आखिर वजूद क्या है ? महात्मा बुद्ध का प्रभाव पड़ा बहुत गहरे से - याद नहीं ठीक से कोई नाटक था ‘‘सिद्धार्थ’’ उस में शायद भाग भी लिया था - या कहीं बचपन में जुड़ी थी उस के साथ और एक दार्शनिकता सी घुल -मिल गई मेरे व्यक्तित्व में . इसी लिए मैंने जीवन कभी लिप्त होकर नहीं जिया . जितना जो है -ठीक है . शिकायत नहीं होती -अपने कर्मों पर ध्यान ज्यादा जाता है . आत्म -विशलेषण  पर दृष्टि अधिक केन्द्रित होती है .  पर सौंदर्य, सम्वेदना, सोहार्द और स्नेह मुझे बाँध लेते हैं . जहाँ भी हो , मैं दोनों हाथों बटोरने पहुंच जाती हूँ .  इसीलिए मैं अपनी पहली कविताओं की प्रेरणा अपनी  एक टीचर को मानती हूँ . जिस का शायद नाम था गुरप्रीत - बेहद खूबसूरत , छरहरी , गंभीर आँखों वाली , अनूठा व्यक्तित्व , अपनापन और पढ़ाने का एक अलग ही अंदाज . मैं तो एकटक उसे देखती रहती . उस समय मैं अपने ननिहाल के  शहर आगरा में शायद छठी या सातवीं क्लास में थी. ग्वालियर पहुंचने से पहले का अस्थायी  पड़ाव था यह. गुरप्रीत जी ने मेरे अंदर उड़ेली महादेवी – “कह दे माँ अब क्या देखूं. – मै नीर भरी दुःख की बदली”. इन पंक्तियों ने मेरी कोख में सर्जना की बीजों को खाद-पानी दिया .
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         मेरे अंदर एक मंदोदरी रोती है . सीता अपनी सम्वेदना में कराहती है . अहिल्या का पत्थर हो जाना प्रश्न पूछता है . यशोधरा का परित्यक्त होना बिसूरता है . नारी को इंसान कब समझा जायगा ? . टुकड़ो में नहीं - सम्पूर्ण नारी के रूप में .  उस के सम्पूर्ण देवी गुणों को स्वीकारते हुए .मेरी आँखों में आज भी एक दृश्य जिन्दा है - उस आग की लपटें - एक बिजली की तरह लरजती हुयी मेरी आँख के सामने है . वह अंदर से बाहर की ओर भागी थी . अपने आप को आग के हवाले करती हुयी . वह मर जाना चाहती थी - पर आसपास वालों ने उसे लपेट कर बांध लिया . उसे बचा लिया . उस का पति एक तंत्र -मन्त्र  विद्या जानने वाला योगी का धूर्त रूप था जो भोली भाली लड़कियों को अपनी कोठरी में बुलाता और मनमानियां करता . वह देखती थी और बिसूरती  थी पर एक दिन उस ने अपनी चेतना को ताला लगा कर स्वयं को खत्म करने की ठान ली . उस दिन से मेरे अंदर नारी और पुरुष के बीच के समुन्दरों ने घर कर लिया . वे दो किनारे हो गये . एक ही मझधार के दो किनारे - जो मिलते हैं तो कहीं बीच में - पर उन की नियति अलग-अलग है . वह साथ रहते हैं तो समुद्र खत्म हो जाता है - संवेदना , सौहार्द  और प्यार -सब कुछ उम्र भर दांव पर लगा रहता है .
       नारी की दैवी प्रदत्त दैहिक - दुर्बलताएं  ही  उस की सारी हार की उत्तरदायी  हैं . यों तो वह पुरुष से कहीं अधिक सशक्त और साहसी है. पुरुष जितना कमजोर प्राणी इस ब्रहामंड में दूसरा नहीं है. उस की अपनी हीनताएं ही उसे उत्तेजित करती हैं और वह उस के वशीभूत  होकर अपने शारीरिक बल को प्रदर्शित करता रहता है . मैंने स्त्री को हमेशा अभिशप्त एवं त्रस्त ही देखा . यहाँ आकर भी मैंने देखा नारी पिसती है . यों अपनी आजादी की झोंक में उस ने अपने आप को कुत्ते की बोटी बना कर पुरुष के समक्ष डाल दिया है . पर उस की अस्मिता ,उस की पवित्रता  पैरों तले सरे आम रूंधती है . आज यही स्वतन्त्रता भारत को भी लील रही है - नंगा होना स्वतन्त्रता नहीं है. आज इसी स्वतंत्रता की झोंक में स्त्री और पुरुष भूल रहे हैं कि वे एक दूसरे के पूरक हैं - अर्धांग है . अगर संसार का काम एक ही प्रकार की योनि से चल जाता तो ऊपर वाला कभी दो योनियाँ नही बनाता.
                 इस लिए दोनों की अपनी सीमाएं हैं, कर्तव्य हैं . पर दोनों बराबर हैं . कम या ज्यादा , ऊपर या नीचे नहीं हंै . यह सारी आजादी बेमानी है . बाहरी है ! यह ओढ़ी  हुई नई तरह की आजादी उस के अंदर बसी हुई  सदियों से घर में घुसी हुई औरत को पुरुष की दास  बनाने और बना कर रखने की मानसिकता को नहीं बदल सकती .
                 भारत में , अपने एक सम्भ्रांत , शिक्षित प्राध्यापिका के सम्मानजनक ओहदे को छोड़ कर घरेलू हो जाना आज भी मुझे सालता है .  पांच-पांच नौकरों को तड़का लगा कर एक सुदर्शन प्रियदर्शिनी नाम की खिचड़ी बन जाये तो कैसा लगेगा ! नई-नई अपेक्षाएं जो पहरावे से लेकर व्यक्तित्व तक को चुनौती देती आत्मा पर ठक -ठक पत्थरों सी बजेगी तो चोट तो लगेगी ही न . पंजाबी में एक कहावत है - ‘ जो सुख छज्जू के चैबारे , वह न बलख , न बुखारे ’ . अपना देश जैसा भी है आज भी सोंधी खुशबू भरी रात की रानी सा अंदर महकता है और कहीं जिन्दा रहने में सहायक बनता है . पर आज वहाँ की बदलती और गर्त में गिरती संस्कृति , पश्चिमी  सभ्यता के रंगो में रंगती अपने मान्यताओं की मिट्टी पलीद करती रग-रग में बसी भ्रष्ठाचारिता , झूठ , फरेब , चालाकी भी अंदर तक कोंचती है .  आत्मा को बड़ी पीड़ा पहुंचती है . तीस साल पहले छोड़ा हुआ भारत चाहे स्वर्ग न हो पर आज जैसा नरकासुर का नर्क भी न था .  फिर भी माँ है - धरती माँ - गाली भी देगी तो माँ ही रहेगी .  ऐसे में कविता एक सावन की घटा बन कर या खालिस  उपचार (मलहम ) बन कर सहला जाती है . पर यह सहलाना भी लगभग 25 साल तक हर रोज टलता रहा . यहाँ की परिस्थितियों की जूझ में खो जाना ही मेरी नियति थी . जब आप जीवन के संघर्ष में डूूब जाते हैं तो कभी-कभी अपने वजूद के अस्तित्व को भी भूल जाते हैं. और यही हुआ. एक नई दुनिया, नया वातावरण और सम्बन्धों के बदलते तेवरों ने ऐसी चक्कर-घिन्नी में डाल दिया कि तकली पर रखी रुई का फाहा बन कर घूम - घूम कर कुछ और ही बन गई . मैं रुई से धागा बनने की स्थिति में पहुंच गई . सुबह से शाम तक क्लीवलैंड की सड़कों पर इधर से उधर किसी को छोड़ , किसी को पकड़ , बस बच्चों की दिनचर्या के लट्टू का धागा बन कर कारनुमा चैपाये पर भटकती रही . सुबह से शाम मेरे पड़ावों के बस शीर्षक ही बदलते रहे .
              इस सब के बीच अपने से कभी कोई बात नही हो पाई . कभी रसोई की ठक -ठक, रिश्तों की तरेड़ , उधेड़-बुन , प्रोफेशनल से घरेलू हो जाने की अपेक्षायों पर खरा उतरने की कशमकश में अपने आप को कोसना चलता रहा .जब कभी स्थिरता के क्षण मिले तो इस पश्चाताप में बदल गये कि बच्चों का बचपन छिन गया है . इसके साथ साथ अपने से अपनी जवानी , आकांक्षाये और न जाने क्या-क्या पिछली गली से मोड़ मुड गये हैं .  बच्चो की पनपती उम्र में न उन्होंने होली खेली , न पतंग उडाई , न गली में गिल्ली-डंडा खेला , न साथियों से लड़े-झगड़े और न कंचों की कंचनता ही  उन का खेल बनी . हो सकता है यह मेरी ही सोच हो और बच्चे ऐसा न सोचते हों . और मैं ही इस नई होड़ में , नई तिकड़म बाजियां , टेनिस ,फुटबॉल और शतरंज के खेलों  में खुद को न ढाल सकी होऊं , पर इस सब के बीच में स्वयं को हारी हुई असफल करारती चली गई और आज भी यही करती हूँ . मैं न अच्छी माँ बन सकी , न सहिंदड़ ( सहती चली जाने वाली ) , आज्ञाकारिणी पत्नी ।  न सामाजिकता से भरपूर स्त्री और न ही सफल लेखिका. बच्चों को अच्छा भविष्य देने की झोंक में या अपनी महत्वां्कांक्षाओं की पतंग उड़ाने की होड़ में कहीं उन्हीं के साथ इतना बड़ा अन्याय कर डाला.  बच्चों की अल्हड़ता , बेबाकपन और चंचलता असमय ही तिरोहित हो कर एक सजग प्रौढ़ता बन गई . अब वे एक ठहरी हुई संचित सभ्यता के रंग में रंग चुके हैं . जिस में आज प्राकृतिकता कम और ओढ़ा हुआ परायापन ज्यादा है . ऐसे में सृजनशीलता किस दीवार से सर फोड़ती . काश ! यह सारी उठापटक सृजनशीलता की उर्जा बन जाती .  विवशताएं चुप्पी साध लेती हैं , और लोग समझते हंै किनारे टूट गये हैं . यही मेरी नियति थी और अन्ततः मैंने इसे स्वीकार कर लिया.
             यह नहीं कि इस सब से कहीं दुःख नही व्यापता . व्यापता है बलिक दूसरों से कुछ ज्यादा ही व्यापता है और इस दुखने वाली प्रवृति के हित वह दुःख मुझे अतीन्द्रिय बना देता है. यों भी जोर जोर से दुखों का ऐलान सुन कर कौन आता है . हर इंसान का अपना दुःख होता है जिसे वह स्वयं ही सहलाता या दुलराता है . इसे बाँट कर हम हल्के होते हैं . इसी बाँट के लिए मैंने आज फिर से अपनी कलम को चुना है . कलम का यह संबल बिल्कुल उस तूफानी रात के बाद झंझावत में शांत होने जैसा है जो अपना हाथ स्वयं पकड़ कर नाव को किनारे ले जाता  है . इसी लिए पात्रांे में जो दार्शनिकता झलकती है वह कहीं मेरी ही है. अपनी मान्यताओं को इतर-दिशा देने से पहले मुझे अपने आप से जूझना पड़ता है .एक लड़ाई लड़नी पड़ती है - अपने मान्यतायों के विरुद्ध जाने के लिए - जिन खाईयों को लांघना होता है - शायद मुझ में वैसा साहस नही है .
           पहले पहल जब अमेरिका में आई तो अपने ओहदे और हिंदी का भूत सवार था . इसी झोंक में मैंने यहाँ अंतराष्ट्रीय हिंदी समिति की स्थापना  की. यह बात 1983-84 की है . कुछ कवियों को भारत से बुला कर मंच दिया . कवि सम्मेलन करवाए . सफलता और प्रशंसा  भी मिली . कुछ महत्वाकांक्षी बुजुर्गवार जो स्वयं साहित्यकार थे जिन्हें मैंने ही उच्च पद पर बिठा कर उन्हें आदर एवं प्रश्रय दिया था , उन्होंने ही पीठ में छुरा घोपने का काम कर के मुझे  अपदस्थ भी किया . साहित्य के रेगिस्तान में साहित्य की स्थापना से मिली निराशा से मोहभंग हुआ और मैंने एक स्वतंत्र कम्पनी बना कर यहाँ  की स्थितियों को देखते हुए ,यहाँ के बच्चों की  भाषा और  संस्कृति के प्रति अनभिज्ञता को समझ पहचान कर टी.वी एवम रेडियो प्रोग्राम शुरू किये .एक सांस्कृतिक पत्रिका - ‘’ फ्रेंगरेंस’’ भी निकाली . फिल्मी संगीत के कार्यक्रम , यहाँ तक कि फिल्मों  का प्रदर्शन भी किया जिस से आम जनता और उन के बच्चे जुड़ सकंे  और उन की अधिक से अधिक  अँग्रेजी दां बनने की होड़ को भी नई दिशा मिल सके . हुआ यह कि कुछ ही वर्षों में क्लीवलैंड  जैसे छोटे शहर में लोग और उन के बच्चे हिंदी समझने और बोलने लगे . छोटे - छोटे बच्चों की भी भारतीय संगीत में रुचि बढ़ी . उन्होंने अपने देश की एक नई अनोखी तस्वीर देखी . अब तक वे भारत की वही  तस्वीर देखते आये थे जो विदेशी चैनलों पर दिखाई जाती थी - झोपड़-पट्टी , वैश्यालय और गंदगी . अपने देश की कुछ महिला फिल्मकारों ने भी ऐसी फिल्में बना कर उस में अलग से समिधा ही डाली . 
           फिल्मी जगत की कई नामी हस्तियां अपना संगीत , नाटक और नृत्य जैसे हुनर लेकर्र  आइं जिन्हें मैं मंच दे सकी . जैसे हेमा मालिनी का रामायण नाट्य नृत्य  , अनुपम खेर , परेश रावल , जया भादुड़ी , अमरीश पुरी और नसीरूदीन शाह आदि के नाटक , पंकज उधास , जगजीत सिंह , गुलाम अली , मेहदी हसन , एवम आशा भोंसले आदि के विविध संगीत को यहाँ प्रस्तुत किया और लोगों को अपने कल्चर और संगीत की  सार्वभौमिकता से  परिचित  करवाया .लोगों से अधिक मुझे स्वयम संतोष होता था जब मैं उन्हें घर बुला कर खाना - खिलाती और गज़ल-कविता सुनती सुनाती . अपनी ज़िन्दगी के शुरूआती पच्चीस साल मैंने इस में लगा दिए . अब मेरा वह मिशन पूरा हो गया है और मैंने कम्पनी बंद कर दी है और अपने आप को पूरी तरह साहित्य साधना में लगा दिया है .     
         जिन्दगी की इस नई घटाटोप और सघन-बादलों के अँधेरे में लगभग पच्चीस लम्बे अन्तराल तक मैंने कुछ नहीं लिखा . पर एक हैरतअंगेज नजर से अपने महल की टूटती दीवारंे देखी . अपने अस्तित्व के धरातल की फटती बिवाइयां महसूस कीं . मोटी- मोटी दरारें देखी , जो रोज जिन्दगी के कोनों में तिड़क रही थी . मान्यताएं , संस्कार और व्यक्तित्व की भव्यता को छिन-भिन्न बिखरते देखा .  उन्ही दिनों घर के  पहिये पटरी से उतर रहे थे . रास्ते बंद हो रहे थे . सौहार्द , समझ और स्नेह के मुंह पर ताला लग गया था . घर के व्योम को ग्रहण लग गया था । आकाश भुरभुराने लगा था . इस नयी दुनिया में अपनी परिपक्व आँखे खोल कर देखते हुए  वह कितना चुन्धियाई  और अंधियाई , यह तो केवल अनुभव की बात है.  फिर टटोल कर उसी उच्छिटित में से अपने लिए लिए कुछ सूत्र निकाले जिन्हें सेतु मान कर , रस्सी की तरह पकड़ कर जिया जा सकता है और उस के साथ दूसरों को भी बांधा जा सकता है पर बांधना ही छुटकारे की वजह बनता चला जाता है और बन गया . उस टूटन का प्रभाव तो स्वतः दबे पाँव रचनाओं में चला आता है - सुनने या गुनने के लिए उस के पाँव में घंटी नही बांधनी पड़ती . वह घंटी नगाड़े सी गूंजती है . वह लुहार की  हथौड़ी-सी तो बस सालों अंदर बजती है पर बाहर सुनार की धीमी-धीमी ठुक-ठुक से अपना दीदा सवांरती है . शीशा टूट जाता है और सारी आवाजें आत्मा की अनुगूंज बन कर रह जाती हैं .तब इस धरती की भौगोलिक विभिन्नता केवल बाहरी नही रह जाती , वह अंदर की ओर मुड़ कर  तुम्हें पीट-पीट कर ठोस बना देती हैं . अमेरिका मेरे बाहर से नहीं , भीतर से हो कर गुजरता है . उसमें मेरी मौलिकता कितनी अक्षुण्ण रह पाई है कितनी नहीं का लेखा-जोखा मैंने कभी नही किया . यो बाहर के साथ सरोकार नहीं के बराबर रहा , इस लिए  सीधे - सीधे हवा पानी की तरह उस ने नहीं हिलाया . हाँ भाषा जरूर लड़खड़ाई है . वातावरण की वीरानगी में भाषा सूख -सूख   जाती रही है . निहत्थी बेसहारा सी । कभी- कभी सही शब्द तक ढूंढने में थक जाती है पर चलती है वह मेरा  हाथ पकड़ पकड़ कर , रेंगती हुई ।
   यहाँ बिसूर कर जिन्दगी को मुहं नही चिढ़ाया जा सकता बल्कि उस के रूबरू हो कर उस से जूझना पड़ता है .एक ठोस-वास्तविक कठोर धरती पर स्वयं खड़ा होना पड़ता है .  आंसू बहाने , मर-मिटने जैसे स्त्रीत्व के दासत्व भाव को कोई फूल नही चढाता . बस लड़ने की ताकत देखी जाती है  और उसके भी निश्चित परिणाम होते हैं. पुरुष उसे हिकारत से देखते हैं तो स्त्रियाँ हैरत से , कौतुक से और प्रेरणा भी लेती हैं . मन ही मन सराहती भी हैं. फिर पीठ थपथपाने के लिए तो सारा अमरीकी समाज खुला पड़ा है जो पग पग पर आप को हिम्मत देता है .  यहाँ के समाज में इस से किसी का कद छोटा नही होता . पर अंदरूनी तौर पर यह अंदर तक सालता है कई कई तरीकों से . चाहे आप चाहें या न चाहें - सामाजिकता कम हो जाती है . आप जाना चाहें तो भी लोग बुलाना कम कर देते हैं . विशेषतः शादियों के निमंत्रण कम हो जाते हैं .  हमारे मूलभूत संस्कार और संशय वहीं के वहीं रह जाते हैं शकुन-अपशकुन की सीमा में बंधे हुए. यह कड़वा सच आप को रोज जहर के घूंट की तरह पीना पड़ता है कि आप की दुनिया अलग हो गई है .   अपने हो या पराये , सब एक ही थैली के चट्टे -बट्टे हो जाते हैं.
    आज  सोचती हूँ कि  अगर उम्र भर टूटे कांच के फर्श पर चलती रहती तो आज और ज्यादा लहुलुहान होती  रहती . मैंने  उस रोज रोज के टूटे कांचों  की जमीन पर चलने से इनकार कर दिया और अपने - आप को बचा लिया . यहाँ भी मैं रोज देखती हूँ तो पता चलता है कि अस्सी प्रतिशत या ज्यादा भारतीय स्त्रियाँ केवल घर की छत  के सहारे के लिये बैठी हैं . उन के सम्बन्धों का सौहार्द और विश्वास तो न जाने कब किन पंखों पर उड़ गया है . यह कोई पीठ थपथपाने वाला निर्णय नहीं होता फिर भी यह स्वयं को और अधिक ध्वस्त होने से  बचाना जैसा होता है .कहीं भी कम चुनौती भरा नहीं पर अपनी स्वतन्त्रता का सुकून देता है और खड़े होने की जमीन को मजबूत करता है, और तोड़ता नहीं .
  दूसरा यहाँ अमरीकी समाज में , पारस्परिक विच्छेद के बाद भी पति पत्नी अधिकतर मित्र बन कर रहते है. बच्चो का ध्यान रखना , पत्नी की आर्थिक सहायता , दुःख - सुख में संगी होना और यहाँ तक कि बहुत बार वे पहले से भी कहीं ज्यादा सौहार्द से ओत-प्रोत , अच्छे दोस्त बन जाते हैं . पर हमारे देसी समाज के दायरे भी और सोच भी वहीं की वहीं रहती है. इस  सम्बन्ध को तोड़ने की सजा भी वही . ऊपरी ताम-झाम दिखावा वहीं का वहीं है . पर वह व्यक्ति विशेष जो इस पुल से गुजरता है , जानता है कि पुल की सीमाओं के परे - केवल डूबने के लिए विशाल समुद्र है बस . इस लिए हर कदम सम्भलकर. अन्ततः वह इस सामाजिक और व्यक्तिगत दोनों धरातलों पर खड़े होकर जीवन को चुनौती देती है और अपनी राह निकालती है और अपनी सजा खुद तय करती है , जो नहीं कर पातीं वह पिछडती हैं , हारती हैं ! वही हार जो आज तक उस ने अपने देश में झेली है .  बस इतना अंतर है कि यहाँ वह अकेली है -- सुबह से शाम तक.  बाजार से साबुन-तेल , आटा- दाल. दूध -ब्रेड  और सारे बिलों का भुगतान  करती और अपने निर्णय स्वयं लेती .
यहाँ सहायता मांगना हतक ( एक तरह की हार ) समझा जाता है . यहाँ का प्रचलित जुमला है - एवरीबडी इज़ आॅन देअर ओन !  फिर  मेरी यही सम्वेदना मेरे पात्र छीन लेते हैं मुझ से . यह      प्राकृतिक है . मुझे इस सम्वेदना के लिए पात्रों का कोई अलग से बनाव-श्रृंगार नहीं करना पड़ता . वे पात्र वैसे भी जीवंत पात्र होते हैं आप के आस-पास रहने वाले, जीने वाले . मैं धीरे-धीरे कल्पना से ,   अंतर्दृष्टि से या बाहरी दस्तावेजों के आधार पर उन के अंदर घुसने की पूरी कोशिश करती हूँ और पात्र के स्थान पर स्वयं को रख कर परखती हूँ . अंततः मेरी रचना उस पात्र से अधिक उन अंदर की कहीं बहुत गहरी दबी संभावनाओं और संवेदनाओं पर आधारित हो जाती है .
             प्रारंभिक लेखन-आज कोई पूछे कि कब से लिख रही हूँ तो बिल्कुल याद नही . पता नहीं कब कोई इस वीणा को झनझना जाता और इस वीणा के मार्मिक स्वर स्वयं ही वातावरण की  अनुगूंज न बन, मेरे हृदय की वेदना बन कर कविता -कहानी में बह जाते . नहीं याद पहली कविता कब लिखी होगी , पहली कहानी कब लिखी -- शायद  तभी जब दिल रोया होगा , जब मन नितांत अकेला हुआ होगा , जब किसी घाव की तामीर नहीं हुई होगी - जब किसी की टूटी चूड़ियों, किसी की सूनी होती हुई गोद देखी होगी या आँखों से किसी हीर को या किसी रांझे को देखा होगा और उस की पीड़ा उस के बस्ते  से चुरा ली  होगी जो आज तक मेरे बस्ते के किसी कोने में अपने - आप को छिपाए सुबक रही है .
         घर की विवशताएं , विफलताएं एवं अभावों ने भी कहीं इस पीड़ा में जरूर आहुति डाली होगी . यही नहीं जब से आँख खोली - या कहना चाहिए -जब से होश आया दुनिया के गलत आंकड़े देखे , जिन्हें मन स्वीकार नहीं कर पाता - न ही उलटबांसियों का नंगा नाच फलीभूत होते देखा .  परदे  के पीछे के सच को देखा जो अपने आप बिना कहे -सामने उघड़ता रहा.
                   फिर मन मसोसना आ गया . दुनिया की इस धीरे -धीरे पनपती हीनतायों से ग्रस्त टुच्चेपन को देख कर झूठ को देखकर , तुम्हारे ही दुर्ग में घुस कर कोई तुम्हंे ही नेस्तनाबूद होते देख कर - पता नही क्या क्या देखा -सहा , पचाया जो समय समय पर अवशिष्टत बन कर सरंचना बनता चला गया . जिस में कोमलता कम - कटुता ज्यादा रही . इस बात का मुझे दुःख है कि मैं फूलों से ज्यादा कांटों से खेलती रही- क्योंकि फूल एक उगता है और उस के आस - पास कांटे अनगनित . यह विरोधाभास हमेशा  खला . फिर धीरे -धीरे अपने आप को समेटना ,  दूर रहना आ गया ।  एकांत ढूढ़ना और उसी में अपने -आप को पाना सीखने लगी . यह दौड़ तो बेमानी ही रहती है आखिर तक .  क्योंकि अपने आप को तो हम पा ही नही सकते , हर क्षण दूसरों के दरीचों पर हमारी ऑंखें लगी रहती हैं. हम दूसरों की उधड़ी सीवनें देख-देख कर पुरस्कृत करते रहते हैं अपने-आप को . 
                     पुरानी कुछ पिटारियाँ खोली तो कुछ दस्तावेज मिले .
                     1957 में मेरी कहानी सपना टूट गया  को साप्ताहिक हिदुस्तान के फुलवारी क्लब  उज्जैन से द्वितीय पुरस्कार मिला - संचालक थे ---- बांकेबिहारी भटनागर एवं शान्ति भटनागर !1958में तरुण संघ लुधियाना से प्रांतीय प्रतियोगिता में कहानी पुरस्कृत ( नाम उपलब्ध नहीं है ) 1960 में हिंदी परिषद करनाल से मेरी कहानी ‘‘ चिराग ’’ को  द्वितीय पुरूस्कार -संचालक थे --विष्णु प्रभाकर ! उसी साल तरुण परिषद पटियाला  की  ओर  से कविता परुस्कार ( कविता याद नहीं ) सन् 62  में अमृतसर तरुण परिषद में मेरी कविता ( भगवान चाहिए ) को द्वितीय पुरस्कार 1980 में मेरी कहानी ‘‘ सब कुछ होते हुए ’’ को शिमला के तरुण साहित्य से प्रथम पुरस्कार ! 1988 में हिंदी परिषद टोरंटो से महादेवी  पुरस्कार ! जहाँ तक मुझे याद है या जो कुछ कतरने मिली हैं वह बताती हैं कि सन् 58 से ही मैं छपने लगी थी. वीर अर्जुन , वीर प्रताप जैसे दैनिक अखबारों में , रमनी , माया , हरिगंधा  (और नाम याद नहीं हंै ) जैसी कई पत्रिकाओं  में . छपने जैसी परिपक्वता तो शायद बहुत बाद में आई होगी पर मुझे आज भी लगता है -कि जो  लिखती हूँ वह कहीं  पूरा नहीं है कहीं कुछ छूटा हुआ सा लगता है .इसी लिए जीवन में पहला लिखा उपन्यास (17-18 साल की उम्र में लिखा ) आज तक छपवाने का साहस नहीं  हुआ . फिर बाद  में  छपी सारिका में और साप्ताहिक  हिंदुस्तान में भी . यहाँ इतने साल विस्मृति के गर्भ में रही कि  सब कुछ भूल गई .  वह सब खोजने जाती हूँ तो लगता है कोई अंगुली के पोरों से घावों को कुरेद रहा है .  पुरानी एक कहानी थी ‘‘तो’’ वह मेरी बड़ी प्रिय कहानी थी जो सारी संवाद में लिखी गई थी और वह चंडीगढ़ की एक पत्रिका ‘‘अभिव्यक्ति’’ में छपी भी थी.  पर आज मेरे पास न उस की प्रतिलिपि है न वह पत्रिका. इसी तरह जो मैंने पुरस्कृत कहानियों या कवितायों की चर्चा की उन किसी की भी प्रतिलिपि मेरे पास नहीं है . केवल उन संस्थायों के प्रमाण पत्र हैं .  उस समय मैं लिखती भी सुदर्शन आहूजा ‘उलझनके नाम से थी .फिर कुछ समय सुदर्शन इन्द्रजीत के नाम से भी लिखा और छपा . पता नहीं क्या चक्र  था इस नाम बदलने के पीछे . बस आज कहूंगी एक भटकन थी जो समझ से बाहर थी . सुदर्शन आहूजा से सुदर्शन उलझन ,फिर सुदर्शन इन्द्रजीत . इस तरह अपने आप को खोजती हुई किसी प्रकाशक के सुझाव पर सुदर्शन प्रियदर्शिनी बन गई - जो आज नाम के साथ जुड़ कर पक्की पूंछ बन गया है . इस की सार्थकता के विषय में, अब भी मैं कुछ नहीं कह सकती !
                      इतने सालों का अन्तराल , जिन्दगी की उठा-पटक , खानाबदोशी की लूट -खसूट में क्या बचा क्या छूट गया कुछ याद नही . पर दुबारा लिखने लगी तो लगा अपने से दुबारा मिल रही हूँ . अपने आप को फिर से शीशे में देखती हूँ तो लगता है वह पुरानी ‘‘सुदर्शन‘‘ तो वहाँ है ही नहीं. न वह शक्ल, न सूरत. न आभा, न रूप , न उम्र - यह तो कोई पिटा  हुआ मोहरा है जो समय की मार खा -खा कर बोदा हो गया है .  पर अब इसे ही स्वीकार करना होगा और सीवनें उधेड़  कर देखना होगा कि इस की परतों तले क्या है . 
            लगभग 23 साल बाद वर्तमान साहित्य के प्रवासी अंक में मुझे जगह मिली . अच्छा लगा . कुछ कविताओं की मुंह दिखाई देखकर . अब भी बस मुंह-दिखाई जितने ही दर्शन होते हैं अपनी रचनाओं के . पर ठीक है और सुकून है कि इतने लंबे अंतराल के बाद मैं अपनी सड़क पर खडी हूं , भटकी नहीं हूं .पिछले पांच वर्षों में कथासार , वागर्थ , हंस , अन्यथा , कथादेश , हरिगंधा , साक्षात्कार , नवनीत , समकालीन साहित्य , वाणी ,शीराजा , सिलसिला ,पुष्पगंधा, युद्धरत आम आदमी आदि कई अन्य पत्रिकायों ने मुझे अपना सौहार्द और प्रश्रय दिया . मैं  आभारी   हूँ उन सब की.
                आज अपने आप को अलग कर के देखती हूँ तो लगता है , जीवन ने मुझे एक तटस्थता दी है, वीतरागिता दी है इसलिए किसी भी चोट ने हाय-तौबा नही करवाई . आहें सर्द बन कर नहीं निकलीं . केवल अंदर एक गहरी घुटन , गहरी निर्लिप्तता बन कर सालती रहीं. एक स्वीकृति के साथ हमेशा अपने-आप को दोषी ठहराया - अपनी स्थितियों के लिए. जो भी जिन्दगी ने दिया - नियति मान कर रख लिया. कम- फल समझ कर उस को निगल लिया.
                जिस दुर्ग से अनायास निकली थी, उसमें सायास घुसने के लिये बडी मशक्कत लगती है , यह नहीं मालूम था . पांव लहूलुहान होंगे, ऐसा तो अंदेशा न था पर जब अनजाने आपकी बात अनुत्तरित रहती है तो लगता है , अरे , ये क्या हो गया । शायद सारी कायनात ही बहरी हो गई है . खैर ऐसा भी कुछ आपकी आवाज में नहीं होता कि आप सुने ही जायें इसलिये चल रही हूं धीरे धीरे इस नये साहित्यिक पथ पर . देखें क्या  होता है . जो होगा वही होना चाहिये भी शायद .......क्योंकि बस उतने के ही हम हकदार भी होते हैं ।                                                                                                                                                                                           
                                                                ( 20 फरवरी 2013)
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क्लीवलैंड , अमेरिका - 001 440 7171 699 


कहानी
देशांतर
सुदर्शन प्रियदर्शिनी

                   कार्ड उस के हाथ मैं है . अन्तत इसे तो छप कर आना ही था .   बड़ा सुंदर और अपनी संस्कृति की सुगंध से ओत- प्रोत.   कार्ड भारत से छपवाया गया था. वह फूली नही समा रही थी और सोच रही थी कि  हमारा  अपना भाव ही दूसरी संस्कृतियों और सभ्यता के प्रति नकारात्मक है यों  इन लोगो का हृदय तो कितना विशाल है.  क्या हुआ अगर वह  आयरिश है. कोई और इतालियन, हंगेरियन या जर्मन भी  होती तो क्या . हमे अपने मन का द्वार खुला रखना चाहिए . फिर  समय तो बहता ही है ..पानी की तरह ढुलकता हुआ. हम में इतनी  शक्ति कहाँ कि घड़ी की  सूइयों को पकड़ कर रोक ले या पीछे घुमा लें और सब कुछ  अपनी संस्कृति  में  कील की तरह ठोक दे  .
कार्ड को सरिता ने  उल्ट पलट कर देखा और ला कर  रसोई की  शेल्फ पर रख दिया क्यों कि उस के हाथ और ध्यान दोनों रसोई में थे . वह उसे आराम से और पूरे मन से पढना  चाहती थी .
          बच्चे पैदा होते हैं और मां बाप उन की शादी और यहाँ तक की  उन के बच्चो तक  के सपने बुनने शुरू कर देते हैं.  उस पर हमारी प्रकृति और संस्कृति कुछ ज्यादा ही स्वप्न जीवी है.  हम वास्तविकता में कम और सपनों में ज्यादा जीते हैं और लडकों के लिए तो मजाक में ही सही पर  एक गोरी मेंम हमारे जहन में रहती है. यह हमारी दास मानसिकता ही है  कही.
    उसे  याद है इंडिया में जब  उन का  नौकर राम चरण गोवा  से एक जर्मन लडकी को  ब्याह कर  लाया, तो  पड़ोसी ने कहा था, जो काम नीरज जी नही कर पाए , नौकर ने कर दिखाया . वह  उन का मुहं देखती रह गई थी कि वह कह क्या रहे हैं ?. सरिता  हतप्रभ सी होकर इस कटोक्ति को मेहमान नवाजी का कडवा घूँट बना कर गटक गई थी .  पर यहाँ तो यह कोई शाबाशी वाला काम नही था. समय और स्थिति की मांग थी . धूप और छाया का प्रभाव था .  जैसा वातावरण मिलेगा वैसा ही तो पौधा  पनपेगा . वह रुकने वाली गाडी निकल चुकी थी . अब तो केवल हरी झंडी देने का अधिकार बचा  था . अपनी टांग अड़ा कर भविष्य की हड्डियाँ नहीं तुड्वानी थी . पर यह सब वह क्या सोच रही है  और क्यों सोच रही है ?.
            सरिता कार्ड की इबारत को कई बार पढ़  गई  थी . दो पाटों के बीच फंसी हुई बेबस और असहाय पक्षी  की तरह -खामोश चीखती हुई सी . एकबारगी लगा जैसे किसी ने उस के पूजा के कलश को पैर से ठोकर मार दी हो .  बाहर से सभी ताम-झामों से सुस्सजित भारतीय शादी का कार्ड अब अंदर से अपनी काली सूरत लिए उस का मुहं चिड़ाने लगा था.
उस मैं दो शादियों का व्योरा था . एक भारतीय ढंग से और दूसरी
क्रिश्चियन रीति से.  आर .एस .वी . पी  में लडकी की मां का नाम लिखा था . उस मां का नाम जिस मां का सर्निम बेटी के सर्निम से अलग था.  क्यों कि बेटी पहली शादी से थी और अब मां दूसरी शादी वाले पति के साथ थी .
सरिता के अंदर -बाहर एक अंधड़ अपने पूरे अंधेरों के साथ उबलने लगा .  उसे लगा वह किन्ही 
चक्रघिनियों  में कुएं पर चलने लने वाले रहट में फंस  गई है और चक्कर पे चक्कर काट रही है.  उसे कब रुकना है और कहाँ रुकना हैउसे कुछ मालूम नहीं है . उसे लगा वह किसी से फोन पर बात करे.  नीरज को फोन करे या बिटिया को . पर वह  उन से अपेक्षित उत्तरों के वार्तालाप में धंसती जा रही थी .  नीरज कह देंगे तुम खामखा अपने आप को अंधेरों मैं घसीटती रहती हो . साधारण- स्थिति को भी असाधारण बना कर अपने आप को सजा देती रहती हो . क्या हो गया अगर लडकी ने अपनी कम अक्ल से यह नमूना दिखा दिया .  या दोनों ने मिल कर भी किया हो तो भी क्या . यहाँ शायद ऐसा ही होता  हो . दोनों मिल कर सब कुछ कर रहे हैं तो यह भी सही.  बेटी कह देगी - अब क्यों बिसूर रही हो माँ . जब उन दोनों ने साथ-साथ रहना शुरू किया था तब रोकती तो शायद आज यह नौबत न आती.   होने दो अब सब  कुछ हंसी -ख़ुशी के साथ . उन्हें क्यों महसूस करवाती हो कि तुम्हे बुरा लगा है बल्कि यह महसूस करवाओ कि तुम्हे कोई परवाह  नही .
उसे समझ नही आ रहा था कि वह कैसे इस सब को यूं हीजाने दे  .  जब यह कार्ड इंडिया जायेगा, वे लोग कैसी -कैसी बाते करेंगे !
बड़ी बनती थी - अपनी संस्कृति अपनी थाती को सम्भाल कर रखना चाहिए .
अब पता चला !
इस कार्ड से तो लगता है बच्चों ने मां-बाप का तो बिल्कुल पत्ता ही काट दिया है .
वे न जाने कब से साथ-साथ रह रहे होंगे .
हमारी तो समझ में नही आता इतने साल इकठे रह कर शादी के लिए बाकी रह क्या जाता है .
यह तो बस दुनिया की  आँखों में धूल झोकना जैसा हुआ .
फिर कोई कहेगा - बिचारी सरिता के बारे में सोचो.उस पर क्या बीत  रही होगी  और नीरज !
अरे छोडो नीरज की, वह तो पहले से ही फक्कड है . उसे कोई फर्क नही पड़ता . उल्टा वह तो उन मेमों और उन की सहेलियों को जकड़-जकड़ कर मौज मरता होगा . उस को अपनी खिल
न्द्र्दियों से मतलब है . कल्चर-वल्चर जाये भाड़ में . मुसीबत तो बिचारी सरिता की है वह पता नही कितनी टूटी होगी .
ओह ! क्या क्या सोच रही है उसे लगा वह पागल हो जाएगी .  अभी तो न जाने क्या -क्या होना है शादी तक - उन की और  अपनी रस्मों का चूरमा बनते-बनाते तो वह हलकान हो जायेगी .  उस पर तुर्रा यह कि सब कुछ हंसते-मुस्कराते रह कर करो . नही तो बेटे से हाथ धो बैठो .
फिर उस ने अपने आप को झटका दिया - उसे ऐसा नही सोचना चाहिए . आखिर अपने बच्चो की ख़ुशी है . बच्चों की खुशियों के लिए जमीन -आसमान एक कर देना तो मां -बाप की नियति रही है - पर बच्चे ...!    एक  दिन   क्यों इन सम्बन्धों में भी लेन-देन शामिल हो जाता है .  कभी -कभी हम दो दिशायों के बीच  किनारे ढूढने लगते हैं .पर दिशाए और सीमाए अपने तरह से अपना वितान बढाये जाती हैं और हम हैं कि ध्रुवतारे की तरह एक -टक देखते बस स्थिर रह जाते हैं .
जितना वह सोचती है उतना ही वह डूबती  जाती है .  क्यों इतना सोच रही है ! इतनी छोटी  सी बात को इतना बड़ा बना  देना ठीक नही है.  स्वयम उस ने कई बार अपनी पुरानी सस्कृति की कई  दकियानूसी बातो की खिल्ली उड़ाई है .  क्या यह उसी मे से एक नही है ? पर जब बात अपने पर आती  है तो जाने क्यों  इतनी बड़ी लगती  है . बेटा कुल चलाता हैवंश आगे बढ़ता हैइस बात को ले कर उस ने
सदैव बड़े- बूढों से माथा टकराया है. इतनी बड़ी दुनिया में -अगर बाप के नाम -गोत्र को उठाने वाला किसी का बेटा पैदा न हुआ तो क्या ...बेटी अपने घर चली गई और नाम -गोत्र सब छोड़ गई तो ...ये सब बाते इतनी बड़ी दुनिया मे कितनी बेमानी हैं .  पर आज क्यों  सब ऐसे लगता है जैसे किसी बड़े अजगर ने मुंह खोल कर उसे ही अपना निवाला बना लिया हो .
                पर  नहीयह बिल्कुल अलग  बात है . बेटे की शादी के कार्ड पर माँ -बाप का नाम तक न हो .  एक बार तो उसे लगा कि उसे बेटे और बहु को दाद देनी चाहिए - कितनी संजीदगी से,. करीने से और एक बड़े ही चातुर्य से मक्खी की तरह माँ - बाप को बाहर निकाल दिया है .
यह हम दोनों का विवाह है -    कार्ड  बंनने से पहले ,   बेटे से बहस हुई थी इस बात पर .
पर बेटा -उस में दो परिवारों का मिलन और माँ -बाप का
असिस्त्त्व तो रहना चाहिए न !
दुनिया को क्या ढिंढोरा पीट कर बताना चाहिए कि  मैं आप को बेटा हूँ -वैसे नही पता किसी को !
लेकिन हमारे संस्कार ...
कितनी बार कहा है -  यह संस्कार-फंस्कार पीछे छोड़ आये हैं आप और हम . हम यहाँ के है और यही के कायदे-क़ानून , संस्कार-सभ्यता हमे निभानी चाहिये . नई दुनिया, नया जीवन - आप ने तो जी लिया अब हमे जीने दीजिये .
मै क्या तुम्हारा जीना रोक रही हूँ , वह अंदर से भर आई थी .
और एक लम्बी हूँ ..के साथ फोन का चोगा रख दिया गया था .
ऐसी कितनी ही सुरंगों में से उसे रोज गुजरना पड़ता है . बाप से बात नही करेंगे क्यों कि अभी भी कहीं उन की ऊँची दहाड़ उन्हें डराती है . बाप तक संदेशा भी माँ की ही पीठ पर चढ़ कर पहुंचता है . जितना भी हम   इन्हें छोटी बाते कह कर नकार दे -कहीं इन्ही छोटी बातों के कंधों पर बैठ कर रोज की जिन्दगी ठिलती है.  ये  ही बातें जिदगी की वे  चौखटें  हैं जिन पर जिन्दगी टिकी रहती है .  आज कई घरों की छतें-भुरभुराती हुई इन कमजोर चौखटों  पर खड़ी लंगड़ी -लंगड़ी  खेल रही है .
उस ने कार्ड को उठा कर अलगनी पर रख दिया . रखते-रखते उस ने फिर सरसरी नजर से देखा , विशवास नही हुआ यह उस के अपने बेटे की शादी का कार्ड है जिसे लेकर
इतना बिसूरना चल रहा है . उस की  समझ मै नही आ रहा था कि वह कैसे यह कार्ड नीरज को दिखाए ..जैसे उसे किसी सगे सम्बन्धी की शादी का प्रसंग उठा कर शादी मै जाने की इजाजत मांगनी हो . इस कार्ड को दिखाने पर नीरज
की ऑर से लौटते संलाप उसे स्पष्ट सुनाई दे रहे है - भुगतो ! अपने लाड -प्यार का नतीजा - मैं न कहता था , इसे रोको इन विदेशी-बिल्लियों को मिलने से ! 
आज  तुम्हारी शह  का  नतीजा  सामने   है .
क्या तुम नही रोक सकते थे ?
वह फरियादें तो तुम से करें और निजात मैं दिलाऊ .
तुम कभी बीच में पड़े होते तो शायद आज यह न होता जो हो रहा है .
अब मैं क्या कर सकता हूँ . सब कुछ तो हो गया है .  अब या तो भुगतो या हट जायो उन के रास्ते से  , सरिता !
तो क्या छोड़ दूं उन को !
उस से क्या अंतर पड़ेगा - तुम छोडो या न छोडो ! वह तो उसी परिपाटी पर चल ही रहे हैं . यह तो नगाड़ा बजा है , युद्ध का बिगुल हमारी ऑर से बज भी गया तो क्या १
तुम केसे बाप हो !
जैसा भी हूँ , कम से कम उन की चिरोरियां करने वाला बाप नही बन सकता .
घर मै ख़ुशी आने वाली है इसे इस तरह क्या हम नही सोच सकते ?
तो बटोरो न चारों हाथों यह खुशियाँ . रगडो नाक -जमीन पर . इसी लिए तो सब कुछ छोड़ कर आये हैं . बच्चों की जिन्दगी बनाने चले थे , लगता है  अपनी भी गवां बैठे .
सरिता देख रही थी नीरज की नाराजगी एक गम्भीर उदासी मै बदलती जा रही है .  वह वहाँ से उठ कर गुसलखाने मै मुहं धोने चली गई जैसे अभी किसी युद्ध के मोर्चे की तैयारी बाकी है .
आज तक सब चलता रहा . अंदर ही अंदर यह खलाव बढ़ रहे थे किन्तु अब धीरे -धीरे बीच के सेतु भी कमजोर पड़ गये थे  और ये  बिखराव एक भयानक रेगिस्तान से फ़ैलते चले गये.  उस ने अपने ऑर से हर अवसर पर बचाव करने की कोशिशे की, जितना खप सकती थी अपने आप को खपाया .  कोशिश करती रही कि सब कुछ जुडा रहे ,
प्रयत्न किया कि उन की खुशियों का हिस्सा बनी रहे . मन ही मन जलती -भुनती भी उन्हें आशीर्वाद ही देती रही . इस बेलाग -बेशर्म -संस्कृति पर लानत फेर कर जैसे अपने बेटे को जाल मै फंसाया गया शिकार समझती रही .
हाँ वे इतने नादान हैं न कि कोई भी उन्हें फंसा सकता है .
फंसना न चाहो तो कोई नही फंसा सकता.
नीरज ठीक कहता है , वास्तव मै इन सब के पीछे अपनी ही दुर्बलताएं, नाकामियां और हीनताएं छिपी होती  हैं . जिन का शिकार हम सब समय न कुसमय होते हैं . हम भी हुए हैं . इस में इन  का  भी क्या  दोष है ? वे यौवन   की  उस दहलीज पर   है जहाँ घर, संस्कार या अपने देश का कोई भी नियम उन्हें कारागार सा लगता है .  क्यों कि यहाँ की सभ्यता, संस्कृति, यहां की जमीन उनेह आजाद
पंच्छी की तरह उड़ने की आजादी देती है -इसी लिए वे घर से भागते हैं .
मैं समझती हूँ एक तो पीढ़ी का अंतर  ऊपर से देशांतर .
यही नही उन की अपनी उम्र-जनित मूढमति और मर गया या कुंद हो गया विवेक  भी तो है .  आज उन में से सभी पुराने संस्कारों के चिन्ह मिट गये है और उस  जगह  यह नया कूढा-करकट जमा हो  गया है .
अब क्या करना होगा कुछ तो सोचना होगा .
करना क्या है १ जो करना था वह कर चुका है .
ये कार्ड उस ने तुम्हे ही नही सारे सर्किल और इंडिया  में भी यही कार्ड  भेजे हैं .
तुम से लिस्ट ली थी न उस ने सब की ...
हाँ ..
तभी रोक लेती और कहती कि अपनी  तरफ के कार्ड हम स्वयम बनवायेगे .
यह मैं कैसे कह सकती थी .. या कहिये कि कह नही सकी .
तो अब क्या कर सकती हो ! अब देखो और इन्तजार करो -उन जूतों का जो फोन की घंटियों के साथ बजने वाले हैं .
क्या कार्ड बनवाया है साहिब-जादे ने.

"
जान और जैनी "
२१ जून १९९८ , सुबह दस बजे
 अपने विवाह पर 
आप की उपस्थिति के आकांक्षी हैं
चर्च इग्नेशिअस
बिकौन स्ट्रीट
-शिकागो
आर .एस  .वी . पी १५ मई 1९९८
 मिसेस ऐना क्रिस्टोफर
c /o  चर्च इग्नेशिउस
मुझे बतलाओ  यह कहीं से भी हमारे बेटे  के विवाह का कार्ड  लगता  है ! उस ने अपना नाम तो पहले ही बदल लिया था यह कह कर कि इन लोगो को हमारा  नाम बुलाना नही आता और नाम को इतना बिगाड़ देते हैं कि आदमी अपने आप को ही न पहचाने.  दूसरी दलील  दी कि नौकरी मिलने मैं आसानी होती है.  हमे  ही बनाता रहा.  वास्तव मैं  वह तो सब अंदर अंदर अपने आप को और हमे इस सब के लिए तैयार कर रहा था हमारी नाक के नीचेहम ही समझ नही पाए .  अब कहते है जनाब जीवन में ऊपर उठने के लिए  विदेशी बिल्ली से शादी जरूरी है .  हम  मूढमति  ही उस की  चालाकियां समझ नही पाए . बस गाहे-बगाहे  आने वाले उस  के फ़ोनों पर ही तुम  निहाल होती रही .
पर गलतियाँ तो हम ने भी की हैं न नीरज !
क्या सिर फोड़ दिया हम ने उन का . उन के लिए अपना घर, देश, माँ बाप, सगे-  सम्बन्धी  छोड़ के आये .
पर तुम्हे याद है नीरज , हम जब पहले पहले आये तो यहाँ की जिन्दगी का हिस्सा बनने के चक्कर में हर वीकेंड में इन्हें घर अकेले छोड़ कर  चले जाते  थे  क्यों कि पार्टियों मैं बच्चों को ले जाना मना होता था. हम उस भेड़-संस्कृति का हिस्सा बनना चाहते थे . और तुम भी यहाँ के  रीति - रिवाजों की दुहाई देते थे .
मुझ पर दोष लगा रही हो .
दोष तुम्हारा या मेरा नही  उस समय की मांग का है  जो हम ने  पूरी की .  हालाकि तुम जानते हो कि मेरा मन अंदर ही अंदर रोता था और मैं कई बार तुम्हे पार्टी से जल्दी खींच कर घर ले आती थी.
यहाँ आये तो इस जिन्दगी का हिस्सा तो बनना  ही था .
हमारे घर आने तक बच्चे टी. वी देख कर सो जाते थे .
धीरे धीरे बच्चों ने अपने उस अकेलेपन में -अपने आप को तलाश लिया था . आज वही तलाश अपना मूर्त - रूप धारण कर रही है जो सचमुच खलता है . पर तब हम पार्टिओं मै शतरंज , ताश , खाना पीना , चुहल -बाजियों मै व्यस्त होते थे , कही
उन्हें भी इस का कुछ अंदाज तो रहा ही होगा नीरज .
बाद में जब हम ने धीरे धीरे पार्टियों में जाना कम किया तब शायद समय निकल चुका था . उन्होंने अपने खालीपन को भरने के लाघव ढूढ़ लिए थे . टी. वी .पर न जाने क्या -क्या देखना , देर तक जागना और कमरा बंद कर के न जाने किस -किस के साथ बतियाना . इस सब से धीरे -धीरे उन की एक अलग दुनिया बनती गई .
पर तुम माँ थी ! तुम रोक सकती थी यह सब !
हाँ ! यह आक्षेप बड़ा सरल है अपने आप को बरी कर लेने का .
आज वह अपने आप में न जाने किन किन
ख्यालों में खल रही थी.  वही बच्चे हैं जिन के लिए आसमान में उठे हाथ, दुआएं  और  सलामतियाँ मांगते थकते नही हे आज उन्ही की ख़ुशी पर आंसू निकल रहे है .वह अपने आप से ही रोज पूछती है क्या दो संस्कृतियों के अन्तराल में यह जरूरी है कि मां-बाप को आंख की किरकिरी समझ कर मसकते रहो जब तक वह आंख से निकल न जाए .
जबरन उस ने अपने आंसू कोटरों मै वापिस खींच किये - कैसी माँ हूँ ..  और हाथ फिर से ऊपर ईश्वर की तरफ उठा दिये .
रक्षा करना .
हम कार्ड की पंक्तियों के बीच न हुए तो क्या हुआ .
दुनिया में करोड़ो लोग हैं , सभी के माँ -बाप क्या माथे की बिंदिया बन कर माथे पर सजे रहते हैं !
हमे मान लेना चाहिए कि हम स्वयम ही उन्हें नया भबिष्य देने  यहाँ आये थे .
पर क्या यही कारण था यहाँ आने का ? उन को नया भविष्य देने के लिए ... कहीं इस की सच्चाई भी आज उसे अंदर कुरेद रही थी .
क्या हमारी अपनी इच्छाएं या आकाक्षाये  नही थी इस महादेश का हिस्सा बनने की ! जरा सी कोई अदना सी बाहर की चीज ला देता ( लिपस्टिक , टूथब्रश ,
सैंट या कुछ और ) तो सालों हम उसे सात परदों में छिपाए सम्भाले रहते और अमरीका के गुण गाते रहते .. यह कही हमारी अपनी भी सतरंगी तितलियाँ थी, जिनेह पकड़ने हम अँधा -धुंध दौड़े थे. यो कहो कि बच्चे -हमारी उन आकाशी- आकांक्षाओं  की चपेट मैं आ गये . कई बार तो बडका कह देता था -माँ वहाँ हमारे पास क्या नही था जो हम यहाँ पाने आये हैं . 

नीरज के पास अपनी आहट की उपस्थिति  को दुबारा जताने के लिए उस ने कार्ड को जोर से चूम लिया . ख़ुशी की छनछनाहट को उस सन्नाटे में घोलने के लिए . 

नीरज ने आँखों से कुहनी हटा कर देखा और मुस्का दिया .....

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                                                 सुदर्शन प्रियदर्शिनी 
जन्म : 27 अगस्‍त 1941 . लाहौर ( अविभाजित पाकिस्तान )
बचपन : शिमला,उच्च शिक्षा : चंडीगढ़
प्रकाशित रचनाएं  :
उपन्यास :रेत के घर  (भावना प्रकाशन ),जलाक  (आधार शिला प्रकाशन),सूरज नहीं उगेगा
            न भेज्यो बिदेस.
कहानी संग्रह : उत्तरायण  (नमन प्रकाशन)
 
कविता संग्रह : शिखड़ी युग (अर्चना प्रकाशन),बराह  (वाणी प्रकाशन),यह युग रावण है   (अयन प्रकाशन)
                    मुझे बुद्ध नही  बनना  (अयन प्रकाशन)
 
पंजाबी कविता  संग्रह :में कौन हाँ (चेतना प्रकाशन)
पुरस्कार/सम्मान: महादेवी पुरस्कार : हिंदी परिषद कनाडा ,महानता पुरस्कार : फेडरेशन ऑफ इंडिया ओहियो
                       गवर्नस मीडिया पुरस्कार : ओहियो य़ू. एस .ए.,शोध प्रबंध : आत्मकथात्मक शैली के हिंदी उपन्यासों                  का अध्ययन, हरियाणा कहानी  पुरूस्कार 2012
सम्प्रति : 1982 से क्‍लीवलैंड , ओहायो , अमेरिका में
पता :सुदर्शन प्रियदर्शिनी,246 stratford drive,Broadview Hts. Ohio 44147,U.S.A,(440)717-1699


1 comment:

  1. ब्लॉग के लिए


    सुधा जी,
    " राख में दबी चिंगारी" की भूमिका कई बार पढ़ गई। आपने इतने सहज ढंग से अपनी बात कही है कि सीधे मन में उतरती ही नहीं गई बल्कि मस्तिष्क को भी झकझोर गई। यह एक सच है कि बहुत सी चिन्गारियां राख में ही दबी रह जाती हैं और वे इसे ही अपनी नियति मानकर ख़ामोशी से बुझ भी जाती हैं। ज़रा सी भी प्रोत्साहन की हवा मिले तो कुछ फिर से सुलग भी उठती हैं। इतने प्रभावशाली ढंग से इस मुद्दे को उठाने, अपनी बात कहने और “राख में दबी चिन्गारी” स्तंभ की भूमिका लिखने के लिए बधाई। राख में दबी चिन्गारियां ढूंढने का साहस केवल सुधा अरोड़ा ही कर सकती हैं।
    सुदर्शन प्रियदर्शिनी जी का आत्मकथ्य अपने आप में ही एक सर्जनात्मक रचना है। लगता है गद्य नहीं लिख रहीं , कविता कह रही हैं। देशान्तर कहानी अपने समय का सच बोलती हुई सुन्दर, प्रवाहमयी रचना है। इस सुन्दर ब्लॉग के लिए बहुत- बहुत बधाई।
    शुभकामनाओं के साथ
    अनिलप्रभा कुमार

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