(मुम्बई पुस्तक मेला में बाएं से - मलयालम लेखिका
मानसी,तमिल लेखिका अम्बई,मराठी ले. उर्मिला पवार
और शालिनी माथुर
मानसी,तमिल लेखिका अम्बई,मराठी ले. उर्मिला पवार
और शालिनी माथुर
आप कहिए, कि हम सब सुन रहे हैं
शालिनी माथुर
’’
इस
बार पराग में शीला इन्द्र की कहानी छपी है ’’
कहती
इुई हमारी मम्मी का चेहरा खिल जाता और मेरा भी,
कि
आज दोपहर को मम्मी हमें कहानी पढ़ कर सुनाएंगी। मुझे खुद भी पढना आता था ,
मगर
मम्मी का पढ़कर सुनाना अलग ही मायने रखता था। खाना खाने के बाद दोपहर को पलंग पर
लेट कर मम्मी की बाँह पर सिर रखना और उनका हमें पढ़ कर कहानी सुनाना अच्छी तरह याद
है। कहानी कौन सी थी याद नहीं, पर
कहानी सुनना अच्छा लगा था ,अच्छी
तरह याद है। माँ की बांह पर सिर रख कर लेटना ज़्यादा अच्छा लगा था या कहानी,
कह
नहीं सकते पर शीला इन्द्र का नाम याद रह गया। आज जब शीला इन्द्र की बड़ों के लिए
लिखी गई पुस्तक “क्या
कहूँ क्या न कहूँ‘‘ पढ़
रही हूँ तो उनका नाम अपने बचपन से जोड़ कर देख रही हूँ। उन बच्चों में मैं भी थी ,जिनके
लिए उन्होंने कहानियाँ लिखीं , उन
माँओं में मेरी माँ भी थी जो माएं अपनी बांह पर लिटा कर अपने बच्चों को कहानियाँ
पढ़कर सुनाती थीं। बचपन में जब शीला इन्द्र का नाम सुना था तब सोच भी नहीं सकती थी
कि बड़े होकर एक दिन बड़ों के लिए लिखी उनकी पुस्तक पर टिप्पणी करूँगी।
अपने
शीर्षक क्या कहूँ क्या न कहूँ के समान ही यह पुस्तक भी दुविधा की मनः स्थिति से
आरम्भ होती है- “मैं
तो स्वयं उन्नासी वर्ष की वृद्धा,पिछली
पीढ़ी के एक पीढ़े पर बैठी हूँ। मैं अपनी पिछली पीढ़ी की बात बताऊँ तो कैसा लगेगा ?.........मुझसे
भी पिछली पीढ़ी और उसकी भी पिछली पीढ़ी की नारियाँ कैसी थीं?(पृष्ठ
17) लेखिका के
प्रश्न का उत्तर है कि, कैसा
भी लगे, हमारे
लिए सुनना ज़रूरी है, कि
यही इतिहास है ,हमारी
पिछली पीढि़यों का इतिहास, जो
न लिखा गया-न पढ़ाया गया, न
उसकी अहमियत समझी गई। मगर वह अगली पीढि़यों के ज़हनों में दर्ज हुआ और उसी से अगली
पीढि़यों की ज़हनियत का निर्माण हुआ। वही परम्परा वही जकड़न जिसने इस ज़हनियत का
निर्माण किया कि जो तमाम आर्थिक,तकनीकी
उन्नति के बावजूद आज भी इतनी रूढ़ है कि बी.ए.,एम.ए.,बी.टेक पास लड़की भी
शादी की वेदी पर इस तरह बैठती है मानों बलिवेदी पर बैठी हो। ससुराल में झेलती है,
सहती
है, तब तक जब तक जला
कर मार नहीं डाली जाती। हम लोगों ने 1986
में जब स्त्री अधिकारों के लिए काम शुरू किया था तब सोचा था कि यह सब धीरे धीरे
ख़त्म हो जाएगा मगर आज 2013
में बहू जलाए जाने की खबर रोज के अखबार की खबर है और हमारे केन्द्र में हर महीने आनेवाला कम से कम एक केस। जो मारी
नहीं गई वे तिल तिल मरीं। इस ज़हनियत के निर्माण में सदियां लगी हैं।
‘‘अजीब
बात है कि हम यदि पिछले सौ दो सौ साल के जनमानस की बात करें तो नारी के सन्दर्भ
में सारी सोच उसके बेचारा जीवन बिता पाने की क्षमता पर टिकी है,
अथवा
वह उतनी ही भली मानी जाती थी ,जितना
अधिक वह सहती थी’’......”पति
द्वारा की गई अल्टीमेट तारीफ हुआ करती थी,’’
हमारी
यह बिचारी तो .....जितनी अधिक बेचारी उतनी अधिक महान्।’’
(पृ. 17) ऐसी
महानता कितने दिन सही जानी चाहिए थी? शीला
इन्द्र स्वयं को नारीवादी घोषित नहीं करतीं,
लेकिन
उनके द्वारा बयान किये गए वृत्तान्त घोषित करते हैं कि उस अवस्था को ज्यादा देर तक
सहना न तो सम्भव है, न
ही उचित। इस व्यवस्था को बदलना ही होगा।
शीला
इन्द्र पहले ही अध्याय में महामारियों का जि़क्र करती हैं,
जो
जि़क्र वृत्तान्तों के बीच में पूरी पुस्तक में कभी इसकी बीमारी और कभी उसकी मौत
के रूप में उभरता रहता है- ’’बीमारियां
मौत के खूनी पंजे फैलाती आती थी और परिवार के परिवार समेट ले जाती थी। कोई लाश
उठाने वाला नहीं होता था, यहाँ
तक कि लाशें पड़ी छोड़ कर लोग गाँव से भागने लगते थे। .......चेचक गुजर गए तो एक
दुःख,बच
गए तो सौ दुःख .......सारी जि़न्दगी चेहरे पर बदसूरती के भयंकर गड्ढे और दाग़।
बीमारी में अक्सर बच्चे अपनी आंखे या श्रवण शक्ति तक खो देते थे। जि़न्दगी भार हो
उठती थी।’’ (पृ. 18) मुझे
अपने श्वसुर जी का ध्यान आ गया जो अक्सर हमें सुनाया करते थे कि जब वे केवल चार
वर्ष के थे तो कैसे अलीगढ़ में प्लेग के कारण उनके परिवार के तेरह लोगों की एक साथ
मृत्यु हो गई और कैसे उनके दादाजी ने अकेले ही उनका पालन पोषण किया। मुझे अपने
गाने वाले मास्साब स्वर्गीय श्री सूरज बख़्श जी की बहुत याद आई ,
लखनऊ
में जिनसे मैंने संगीत सीखा , जिनकी
आँखे बचपन में चेचक ने छीन ली थीं, जिनका
स्नेह से भरा नर्म चेहरा आज भी मेरी आँखों के सामने है।
टी.बी. हो जाए तो डाक्टर सहानुभूति भरे
शब्दों में कहता ’’ इन्हें
तो जी टी.बी.है,
मतलब
होता था कि वे तो अब जाने वाली है। या तो वह बहू ’मायके
में पटक दी जाती थी’ या
फिर अगर ससुराल में ही रही तो लाज़मी है कि टी.बी. के रोगी के साथ एक अछूत की भांति व्यवहार किया
जाता। कमरा अलग,सामान
अलग, खाने के सारे बर्तन
अलग, बेचारी अपने ही
बच्चों की सूरत देखने को तरस जाती। -’’अक्सर
तो उनकी जि़न्दगी में ही बेटे के लिए दूसरी बहू खोजने की प्रक्रिया आरम्भ हो जाती
थी। ‘‘(पृ.19 ) शीला
इन्द्र अपनी दादी का जिक्र भी करती है जो उन बेचारियों में से थी जो अपने पुत्र को
पास बुलाकर लाड़ न कर सकीं और टी.बी. की बीमारी से चल
बसीं।यदि वयोवृद्ध लेखिका अपने आत्मीय स्वजनों के ये वृत्तान्त नहीं कहतीं तो कौन
जान पाता?
लेखिका
ने अपनी पुरानी पीढि़यों की स्त्रियों के जीवन वृत्तान्त सन् 1860-65
से प्रारम्भ किए है। शीला इन्द्र की पुस्तक में उल्लिखित जीवनों के बीच बीमारी मौत,
वैधव्य,अनाथ
होने और अभावों में जीवन काटने के सच्चे वर्णन पढ़ कर तो संतोष ही नहीं गर्व होता
है कि जो सफ़र भारतीय सभ्यता पाँच हजार साल में तय कर सकी थी उसमें कितनी गति आ गई
कि दुर्भिक्ष और बीमारियों पर एक ही सदी में विजय पा ली गई। आज स्वयं को वामपंथी
बताने वाले लोग भारत की नव अर्जित समृद्धि को कोसते हुए नहीं अघाते,और
लोकतंत्र को झूठा बताते नहीं थकते,तो
यही विचार आता है कि आज से केवल 100-150
वर्ष पूर्व ही चेचक टी.बी. हैजा प्लेग का
अर्थ था मौत और गरीबी का मतलब था भुखमरी। आज तकनीकी उन्नति से अन्न का उत्पादन
बहुत बढ़ गया है,और
अनेक बीमारियों की दवाएं भी ढूंढ़ ली गई हैं,यह
सब इसी लोकतन्त्र में हमारे सामूहिक प्रयासों से सम्भव हुआ है। मगर मानवीय स्तर पर
हल किए जा सकने वाले सामाजिक प्रश्न? वे
तो मानो हल हुए ही नहीं।
‘‘कलावती
मौसी का विवाह वकालत पढ़ने वाले लड़के से सम्पन्न हुआ। दो साल भी पूरे नहीं हुए थे
कि उनको क्षय रोग हो गया और सास ससुर ने उन्हें मायके फेंक दिया।...मेरी
स्वाभिमानी मौसी ने फिर मौसा जी से बात नहीं की। हर सप्ताह वे बरेली से बदायूं
पत्नी से मिलने आते किंतु मौसी अपनी पूरी ताक़त से चीख कर उन्हें घर से निकल जाने
को कहतीं।‘‘ (पृ67)..कलावती
मौसी ने ससुराल में बहुत दुख सहे। ’’ उन्हें
दो पल कमर सीधी करने का समय नहीं दिया जाता।अत्यन्त दुखी हो कर मौसी ने कहा,
बाबूजी
मैं यह सब बता कर आपको दुखी नहीं करना
चाहती,पर
मुझे यही डर लगता है कि मेरे बाद आप लीला की शादी वहां न कर दें।...उन्हें पत्नी
नहीं औरत चाहिए थी।’‘ (पृ.68) एक
बेटी की असामयिक मृत्यु के बाद दूसरी को उसी नरक में झोंक देना तब एक आम बात थी।
’ससुराल
डोली में आना और अर्थी में जाना’, इस
कथन को झूठा सिद्ध करते हैं उन स्त्रियों के जीवन के वर्णन जो बीमार होते ही ’मायके
में फेंक दी गईं ’या
जो विधवा होते ही ’मायके
में पटक दी र्गइं’।
स्थिति आज भी कितनी बदली है? एच.आई.वी. पाजि़टिव वाले जो
लोग एड्स की अवस्था में पहुँच कर प्रतिदिन दवाइयां खा रहे होते हैं,उनके
साथ काम कर रही संस्था ’उमंग’
के
साथ काम करते हुए मैंने लगभग तेइस सौ मरीज़ों और उनके तीमारदारों से लम्बी बातचीत
करके यही पाया कि नब्बे प्रतिशत घरों में यह रोग लाने वाला पति होता है ,
उस
की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी ’मायके
में पटक दी जाती है’ , उस
रोगिणी का इलाज उसके माँ बाप कराते हैं और उसकी मृत्यु के बाद उनके बच्चे नाना
नानी के घर पलते हैं। जो हाल कल टी.बी. का था आज एड्स का है। हमारा समाज
लाइलाज मर्ज़ के मरीज़ के प्रति बेहद निर्मम है और जहाँ पर मरीज़ स्त्री हो वहाँ
तो जीवन मृत्यु से भी भयंकर है।
आज
जब हम पितृसत्ता
के विरोध में वक्तव्य देते हैं, तो
जेहादी नारीवादी कहलाने लगते हैं,मगर
शीला इन्द्र के वृत्तान्त हमारे ही कथनों का सत्यापन करते है- ’’
आज
जब मैं हिसाब लगाती हूं तो लगता है कि हमारे अधिकांश पुरखों की पहली पत्नी के निधन
के बाद दूसरी शादी हुई थी।’’ मातृ
मृत्यु के आंकडे़,स्त्री
का कुपोषण,उसको
अस्पताल ले जाकर इलाज न कराने के आंकड़े ,स्त्री
को असंख्य बच्चों को जन्म देने के लिए मजबूर करने के आंकड़े यही तो बयान करते हैं
कि स्त्री के जीवन का मूल्य पुरुष के जीवन के मूल्य से बहुत कम है। पर क्या आंकड़े
वह व्यथा बयान कर सकते हैं जो व्यथा एक वयोवृद्ध लेखिका की इस लम्बी कहानी में
बयान हो रही है, - उन
औरतों की कहानी जो माँ, नानी,चाची,ताई,बुआ,जिया
और पड़ोसन थीं। सारे पुरखों ने तो दूसरी शादी की ली,पर
विधवाओं का क्या क्या हुआ, उन्होंने
क्या झेला?’’....‘‘जिया
तीन बेटियों के पिता को ब्याह कर आई थीं और कुल मिलाकर नौ बेटियों का पिता बनने का
सौभाग्य पति को सौंपा‘‘- न
पेंशन न नौकरी उन्होंने कैसे बेटियां पाली होंगी। शीला इन्द्र की किताब वैधव्य का
दारुण वृत्तान्त सुनाती है- अभावों के बीच जीवन गुज़ार कर बेटे बेटियों को पालती
स्त्रियों का वृत्तान्त। पुस्तक उनके घर के भीतरी आचार विचार संसार को चित्रित
करती है।
माटी की
हंडिया चूल्हे चढ़ी अध्याय में लेखिका बताती है’’
कैसा
कुनबा जोड़ा था विधि ने कि माँ किसी की नहीं थीं- न मेरे मां पापा की,
न
मेरी सास व ससुर जी की। उन चारों की मांएं उनको बहुत छोटी उम्र में छोड़ कर स्वर्ग
सिधार गई थी।’’.....बड़ी
मौसी का ब्याह बारह साल की आयु में मेरी नानी ही कर गई थी,
मौसा
जी डिस्ट्रिक्ट एन्ड सेशन जज थे।(पृ. 61) उन्नीस
सौ दस में मेरी नानी ने अपने पास के मोहल्ले में आठ साल की अति सुंदर लड़की को
अपने बेटे के लिए चुन लिया, मामा
जी उस समय सत्रह साल के थे। घर में वह खिलौना बहू के प्यार भरे नाम से जानी जाती।’’
(पृ. 62) शीलाइन्द्र
बाल विवाह, अनमेल
विवाह, स्त्रियों
की अकाल मृत्यु के वाकये सुनाती हैं और अपनी नानी के मृत्यु का दर्दनाक और हृदय
विदारक वृत्तान्त भी - ’’ ससुर
जेठ के घर में होते वह चीखने की असभ्यता नहीं कर सकती थीं। कांतर अपने विषैले
डंकनुमा पांव उनके पेट में धंसाती रही और वे रोटी पकाती रहीं। पुरुषों के जाने के
बाद वे कमरे में भागीं। कई महीने कष्ट भोग कर 40
वर्ष की आयु में स्वर्ग सिधार गईं। ’’ऐसे
पर्दे,शराफ़त,और
तहज़ीब ने कितनों का जीवन बर्बाद किया।
पश्चिमोत्तर से आए मुहम्मद ग़ोरी के हमले के
बाद से भारत में भी पर्दा प्रथा प्रारम्भ हो गई थी,
इतिहास
की पुस्तकों में ऐसे वाक्य पढ़ लेना, और
वास्तव में पर्दा प्रथा का पालन करते हुए घुटन भरा जीवन जीना,
दोनों
में कितना फ़र्क है। ऐसा पर्दा क्यों होता होगा?
पुरुषों
के चरित्र की शुचिता बचाने के लिए, कि
कहीं खड़ी हुई स्त्री को देखकर पुरुषों का मन न डोल जाए?
खेद
है।
नानी की मृत्यु के बाद ’’छोटे
छोटे बच्चों को संभालने वाली रह गईं चैदह साल की बच्ची मेरी मामी जी। ’’......कम
उम्र की विधवा मामी की बात जब भी चलती है तब अक्सर मन में एक बात अवश्य आती है कि
नाना जी व उनके भाई लोग तो आर्य समाजी विचारधारा के थे,
फिर
उन्होंने मामी जी के पुनर्विवाह की बात कभी क्यों नहीं
सोची।........पर शायद सिद्धान्त के तौर पर किसी चिन्तन को स्वीकारना और व्यवहार के
तौर पर उसे अपनाना दो भिन्न बातें हैं।’’(पृ.65)वे
अपनी मां के ताऊ जी की बात बताती हैं जिन्होंने ताई जी की इच्छा पूरी करने के लिए
सन् 1920
में अछूतों के लिए कुआं खुदवाया। ‘‘गांव
में कुआं तो था किंतु लोग अछूतों को उसमें से पानी नहीं भरने देते थे।...कुआं बना।
पूजा तथा भोजन के लिए ब्राह्मणों को तथा पूरे गांव के सभी लोगों को आमन्त्रित किया
गया।... ब्राह्मणों ने आने से मना कर दिया ,’अछूतों
के लिए कुआं बनेगा, हम
नहीं आएंगे’तब
छहों भाइयों ने स्वयं मंत्रों का उच्चारण
करते हुए कुएं की पूजा की और सबसे पहले उस
कुएं से एक वृद्ध अछूत ने पानी भरा।’‘ जश्न
मना, अछूतों को भोजन
कपड़े दिए गये। निःसंतान ताई अपने घर जश्न से उतनी ही प्रसन्न थी जितना कोई अपनी
संतान के विवाह पर। ‘‘कोई
विश्वास करे अथवा नहीं किंतु ऐसे भी लोग थे।‘‘(पृ.66)
शीला इन्द्र की किताब बताती है कि पुराने
समयों में भी ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो परम्परा तोड़ देते थे। ऐसी किताबें
लिखने वाले विरल हैं। इन्हें ध्यान से पढ़ा जाना चाहिए। ये हमें बताती हैं कि जिन
पम्पराओं के निर्माण में सदियां लगीं हैं उन्हें तोड़ने में भी सदियां लगीं हैं।
जो भी परम्पराएं टूटी हैं वे एक दिन में नहीं टूटीं।
भारतीय
समाज जाति और वर्ग के आधार पर पूर्णतः क्षत विक्षत है। यदि इस दृष्टि से देखें तो
यह किताब कायस्थ परिवारों के जीवन की भीतरी झांकी प्रस्तुत करती है।ऐसे विवरणों को
पश्चिम में एथ्नोग्राफि़क स्टडी माना जाता है। कायस्थ उत्तर भारत की एक ऐसी जाति समझी जाती है जिसमें
शिक्षा का बहुत महत्व है। अर्थशास्त्री अर्मत्य सेन द्वारा किये गये शोध में यही
एक ऐसी जाति पाई गई जिसमें उन्हें एक भी निरक्षर स्त्री नहीं मिली। इस जाति के लोग
सामान्यतः नौकरीपेशा मध्यवित्त प्रोफेशनल होते है। शीलाइन्द्र के पुरखों में जज,
मजिस्ट्रेट,
वकील,डिप्टी
कलेक्टर आदि पदों पर काम करते हुए लोग हैं।
लेखिका
कहती हैं,’’ मैंने
अपने परिवार में कभी किसी भी पुरुष को अपनी पत्नी को पीटते न तो देखा,
न
सुना ही।.......अधिकांश पति अपना पूरा वेतन पत्नी को दे देते और आवश्यकता होने पर
बीवी के आगे हाथ फैलाते थे। ’’ मुझे
ध्यान आया कि मेरे पापा भी दफ्तर के लिए तैयार होते समय जब टाई बांध रहे होते थे
तब मम्मी को पुकारते थे और मम्मी अन्दर वाले कमरे की अलमारी में से रुपये निकाल कर
उन्हें देतीं थीं। यह रोज़ का क्रम था। शायद यह तमीज़दारी ही कायस्थों के परिवारों
की ख़ासियत थी। स्त्रीशिक्षा ने कायस्थों के परिवारों के भीतर स्त्री को
इतनी इज़्ज़त तो बक्शी ही थी।वे कहती हैं कि कैसे उनके मायके में उनके पिता मां
ताई आदि संग संग गाते बजाते थे। पापा को गाने का शौक था,उन्होंने
मां के लिए संगीत मास्टर रखे थे। ’’मां
पापा को इतनी परेशानी में भी कभी जन्मपत्री दिखाते नहीं देखा।हमारे घर में बहू से
जेठ लोगों के सामने भी पर्दा नहीं कराया जाता था।’’लेखिका
ने ‘‘न मां को लड़ते
झगड़ते देखा,न
चकल्लस करते न सत्संगों में जाते।’’ ऐसा
लगता है कि कायस्थों
के परिवारों में शिक्षा से पर्दा प्रथा में तो फर्क आया ही होगा और पति पत्नी के
बीच थोड़ा बहुत खुलापन भी।
’’
मेरे
पास पिछले साढे़ चार सौ वर्षो से ऊपर के पूर्वजों के नाम हैं,किन्तु
किसी की पत्नी अथवा बेटी का नहीं। .....वंश वृक्ष में में बेटियों का जिक्र तक
नहीं।‘‘ कायस्थ
परिवार की स्त्रियों के हाथ पर निरक्षर परिवार की औरतों की तरह गोदना भले ही न
गुदा हो परन्तु ख़ानदानों में पुरुष प्रधानता इन विवरणों से स्पष्ट हो जाती है।
लगता है कि शिक्षित परिवारों और अशिक्षित परिवारों में स्त्री की स्थिति में जो भी
फर्क दिखता है वह इतना है कि समकक्षता लोक व्यवहार में थी और दिलों में भी पर
वृहत्तर अर्थतन्त्र में परिवर्तन करने का साहस पढ़े लिखों में भी न था। पढ़े लिखे
लोग भी बे पढ़े लिखों का अनुसरण करते रहे। अन्य जातियों की अपेक्षा अधिक शिक्षित
और रोशनखयाल मानी जाने वाली जाति के घरों के भीतर की झलक देखकर हम सोचते हैं कि जब
यहाँ ऐसा था तो अन्यत्र क्या हाल रहा होगा।
जिन घरों में लोग साथ बैठकर हारमोनियम पर
गाना बजाना करते और फोटो खिंचवा लेते थे, उन्हीं
घरों में दस वर्ष की लड़की धोती पहनती थी,
सिर
ढक कर। तब यही आम चलन था। बच्चियों के लिए मिल में छोटे नाप की धोतियां बनती थी।
लेखिका बताती हैं, ‘‘कहा
जाता था सिर ढको नहीं तो
सिर ढांक कर ऊपर से कील ठोंक दी जाएगी। ’’ किताब बताती है कि
किस तरह पढ़े लिखे लोग भी उन परम्पराओं का निर्वहन करते थे जिन पर उनका अपना
विश्वास न था।
’’बारात की अच्छी ख़ातिर की मांग शायद
दहेज़ का सबसे फूहड़ और घटिया रूप है। ’’वे
कहती हैं। शादियों में मकान तक बिक जाया करते थे,
’’बरेली के पक्के सक्सेना कायस्थ,
खाने
वाले उससे ज्याद पीने वाले। शैल की शादी में जुग्गो बुआ ने अपना मकान बेच दिया,जिसके
किराये से बुआजी का खानापीना चलता था। सब कहते हाय! जुग्गो ने यह क्या
किया। अब अभागिन क्या करेगी? भतीजी
का सुख उन्हें जीने का सुख देगा।.....बारात की ख़ातिर ऐसी कि खूब मुर्गियां कटीं
और बारात जाने के बाद चारों ओर शराब की बोतलें लोट रहीं थीं।’’
आज
भी शादियों का हाल यही तो है, बारात
की अच्छी ख़ातिर की मांग ने अब ’डेस्टिनेशन
वेडिंग’ का
रूप ले लिया है।
’’आगरे
में पूरे छह साल मैं माथुर कायस्थों के बीच ही रही थी। ...उनके यहां स्त्रियों का
अन्य कायस्थों की बनिस्बत अधिक सम्मान था।दहेज प्रथा नहीं थी,नकद
रुपये लेने की प्रथा है ही नहीं। तीजों त्यौहारों अथवा उत्सवों में रसोई की भट्टी
में झोंकने की बजाय बहुओं को बेटियों की तरह ही सजा धजा कर गाने बजाने या आपस में
हंसी मजाक करने के लिए छोड़ दिया जाता है। गाना बजाना सिलाई बुनाई कढ़ाई में हर
लड़की दक्ष होती थी।वैसे वे लोग हमेशा ही अन्य कायस्थों से अधिक आधुनिक
रहे।....कुछ तो बात थी उन लोगों में जो वे अपने को अन्य कायस्थों से श्रेष्ठ समझते
थे।‘‘(पृ.119)ये
विवरण दहेज प्रथा के न होने, स्त्री
की परिवार में बेहतर स्थिति और आधुनिकता के अन्तर्सम्बन्ध पर रोशनी डालते हैं।
लेखिका गर्ल्स गाइड ट्रेनिंग की बात बताती है,
अपनी
मां के तलवारबाज़ी सीखने की भी। बदायूं में गाँधी जी के आने की,
एक
स्त्री के उन्हें गहनों की पोटली देने की,
तकली
कातने के पीरियड की, डांडी
यात्रा के समय लोगों के बड़े बड़े कड़ाहों में नमक बनाने की भी। विश्वयुद्ध के
दिनों में वे पैराशूट के कपड़े के जम्पर की बात बताती हैं और पैराशूट की डोरी से बुने
स्वेटर की। वे कई ऐसी रुचिकर बातें बताती हैं जो हमें पता ही नहीं हो सकती थीं -
जैसे डालडा वनस्पति का सन् 1938-39
में बाज़ार में आना और आना उसके विज्ञापन का भी। उससे पहले विज्ञापन में चित्र के
पीछे से आवाज़ आती थी,’’डालडा
के विज्ञापन के लिए चलती फिरती बोलती तस्वीर आने लगी थीं।’’
हर
घर में डालडा आने लगा सस्ता स्वादिष्ट और साफ़। लोग कहते,
हमारे
यहाँ डालडा आता ही नहीं मगर डालडा को दूसरे डिब्बे में रख कर इस्तेमाल करते।
नायलान प्लास्टिक और पेंसिलीन भी 1949
में आए और मरणान्तक रोग टीबी की दवाइयां भी।’’उन
दिनों फ़ाउन्टेन पेन नहीं होते थे। होल्डर लकड़ी का होता था और उसमें
निब लगा लेते थे।1948
में अचानक ही कुछ अमरीकन कम्पनियों ने अपना सामान बेचने के लिए बाजार में फैलना
शुरू किया था।’’ इन्टर
में पढ़ती हुई लेखिका के लिए पापा ’’एवरशार्प
पेन का सेट चालीस रुपए में खरीद लाए’’,उनको
शायद जमींदारी से आए लगान के तीस पैंतीस रुपए मिले थे।’’कहां
मिलेंगे हमारी सभ्यता के इतिहास के इतने ज़रूरी विवरण?
‘‘याद करती
हूं तो लगता है कि जैसे मेरा बचपन मुझसे अलग खड़ा हो और मैं सामने घटित होती सारी
घटनाएं देख रही होऊं। दिखाई पड़ता है कि एक नन्हीं सी लड़की फूलों वाली फ्र्राक
पहन कर आंगन में खड़ी है और सामने रसोई घर हैं।‘‘
(पृ.33 )स्वयं
अपने बचपन को अपने बच्चे के समान सामने अलग खडे़ देखने के विवरण ने मुझे
प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी निबन्धकार चाल्र्स लैम्ब के एस्सेज आफ़ एलिया में से ‘‘द
ड्रीम चिल्ड्रेन‘‘ निबन्ध
की याद दिला दी जिसमें लेखक एलिस और जान नाम के बच्चों को कहानी सुनाता है और अन्त
में पाता है कि अपनी बैचलर्स आर्म चेयर पर बैठे बैठे उसकी आंख लग गई थी,और
दरअसल वह अपने ही बचपन को अपने बच्चे के रूप में देखता और बात करता रहा था। उदात्त
भावनाएं देश और काल में नहीं बंधी
जा सकतीं। बढ़ती आयु के साथ हमारा बचपन हमारे आगे छोटा बच्चा बन कर खड़ा हो जाता
है और हम उसके ही लाड़ करने लगते हैं। इन्सान की इस भावना को श्रेष्ठ लेखक
लेखिकाएं कितनी खूबसूरती से बयान करते हैं।
लेखिका अपनी बेहतरीन स्मरण शक्ति का का
दामन थाम कर सौ डेढ़ सौ साल पुराने किस्से अभी हाल में घटी घटनाओं की तरह सुना
लेती हैं। इनमें शामिल हैं उनके अपने पीहर के रिश्तेदार,उनके
परिवार और वे शहर भी जिनमें वे रहते थे। शीला इन्द्र अपनी सहेली कमला की बात करती
हैं,अड़सठ साल पहले
देखे गए पीले फूलों की भी जो डेफोडिल्स की याद दिलाते,
टिड्डी
दल की, टिड्डी
खाकर मर गई मछलियों की, सीढ़ीदार
खेत क्यारियों की, ओलों
के बिस्तर की,पुराने
स्कूल की टीचर की क्रूरता की भी। कमला की जाति डोम थी,
पहले
पहल उसके साथ चाय पीने में दुविधा,फिर
हमेशा उसी के साथ खाना खाने लगना,उसका
विवाह,उससे
बिछुड़ जाना और वर्षां बाद पता चलना कि वह गुज़र गई,
कैसे,
इसका
पता न चलना। यह सारे प्रसंग घटनाओं की भांति बयान किए गए हैं,
फिर
भी हम जान सकते हैं कि उस समय भी स्त्री का जीवन उसके हाथ में नहीं था। क्या आज
स्त्री का जीवन उसके हाथ में है? कितना?
प्रथम
और द्वितीय विश्व युद्ध के बारे में हम सबने पढा़ है,
बर्लिन
रोम टोकियो एक्सिस के बारे में ,पर्ल
हार्बर और हिरोशिमा नागासाकी के बारे में भी। अर्थशास्त्र की पुस्तकों में बढ़ी
हुई मंहगाई के बारे में भी लिखा ही होगा। लेकिन ब्रिटिश हकूमत में सरकार की नौकरी
कर रहे डिप्टी कलेक्टरों और मजिस्ट्रेटों तक के घरों पर क्या बीत रही होगी कौन
बताए, निर्धन
की तो बात ही क्या। 1936
में दूध मंहगा हो गया - ’’ कल
से दूध का दाम पौने तीन आना सेर हो जाएगा.......जिया रोज आधा सेर दूध लेती थी,
जिसमें
दोनों समय चाय बन जाती थी .......उन्हें महीने में पन्द्रह पैसे ज्यादा देने पड़ते
.....कैसे समझें पन्द्रह पैसे में चार सेर आटा आता था- महीने में पन्द्रह पैसे
जिया के लिए बड़ी रकम थी। द्वितीय विश्वयुद्ध में मंहगाई छह साल में पांच गुना हो
गई थी। ‘‘ शीला
इन्द्र की किताब बताती है कि विश्व युद्ध का अर्थ था घरों में बच्चों के लिए दूध
की कमी,अच्छी
सब्ज़ी की जगह मंडी जाकर बची खुची सब्ज़ी खरीदा जाना,
गोभी
के जगह उसके डंठलों की सब्जी बनना और जब ’’
घर
की स्त्रियां मरे जिए के अलावा घर की देहरी के बाहर कदम नहीं रखती थीं ’’(
पृ. 81 )तब
जिया का चादर ओढ़ कर सब्जी वालों के बीच सब्जी खरीदने मंडी जाना। मौखिक इतिहास की
यह पुस्तक अपने समयों का महत्वपूर्ण दस्तावेज़ है।
भयंकर
शराबी और वेश्यागामी पिता के प्रभाव से उनको बचाने के लिए ’’मेरे
परबाबा जी ने मेरे फूफा जी को आगरे नहीं रहने दिया और विवाह के बाद बजाय बेटी को
ससुराल भेजने के दामाद को उस छोटी उमर में ही अपने घर रख लिया था। इन्हीं गंगा बुआ
की ननद की शादी में आगरे में बारात तीन दिन रुकी थी। आखिरी दिन वेश्या का नाच रखा
गया था। पता लगा कि औरतें नाच नहीं देखती हैं। यह भी कोई बात हुई कि औरत का नाच और
औरतें ही न देखें?..खैर
औरतों के लिए भी बैठने का प्रबंध कर दिया गया। मर्दों की ओर तेज हंडे जल रहे थे और
औरतों की ओर अंधेरा।उनको बिल्कुल चुप रहने का आदेश दिया गया था,
जिससे
मर्दों की ओर किसी को भी औरतों की उपस्थिति का पता न लगे।‘‘
(पृ.220)‘‘ सारंगी
ने तान छेड़ी और उसने ठुमका लगाया,राजा
मोहे चुनरी मंगाय देयो..‘‘वहां
बैठे जन न सज्जन रहे न दुर्जन, सब
के सब राजा हो गए। सारी
महिलाएं?बिना
हिले दम साधे बैठी थीं। ‘‘(पृ.221)सारे
राजा पागल हो उठे, सभी
नशे में धुत्त ।‘‘डबल
नशा था। ...आश्चर्य हो रहा था प्रस्तर मूर्ति जैसी उन औरतों पर,जिनका
पति जितने अधिक रुपए देता तो इधर पत्नी का सर उतने ही अभिमान से ऊंचा हो जाता।(पृ.222) इस
किताब के अलावा और कहां मिलेगा सती सावित्रियों के स्वामियों के चरित्र का ऐसा
चित्रण? स्त्री
और पुरुष के लिए नैतिकता के दोहरे मानदण्डों की जड़ें सदियों गहरी हैं। महफि़लें
आज बियर बार में बदल गईं,भारत
का आदमी कहां बदला?
कोढ़ी पति
की सेवा करने वाली दादी,’’जिन्होंने
पति की मृत्यु के बाद डाक्टर शान्ति स्वरूप से दूसरा विवाह करके उस काल की सामाजिक
एवं धार्मिक परम्परा को तोड़ा था,’’ (पृ. 123)बतातीं
-’’घर के लोग तो उनको
कोढि़यों के आश्रम भेजने को कह रहे थे और मुझे मायके जाने को। थू है उन अपनों पर,
उन
सगों पर- उसी शहर में रहकर उनकी तपस्या देखने नहीं आए। ’’
दादी
को घर से निकाल फेंका गया, वे
एक डाक्टर की पत्नी बनीं,- ’’ दूसरा
विवाह किया है, यही
तो मेरा गुनाह है न, किसी
की रखैल तो नहीं बनी मैं। जरा गिनो तो पूरे खानदान में कितनी बेटियां थीं जिन्हें
ससुराल में सता सता मार डाला गया और उनके रंडीबाज़ जल्लाद पतियों का अभी भी स्वागत
होता है। मैं तो बहू थी , मुझे
क्यों निकाल फेंका ?‘‘( पृ. 103 )
’’बारह वर्ष की आयु में विवाह,कम
उम्र में ही दो बेटों की जन्मते ही मृत्यु,फिर
वैधव्य,’’(पृ.144)
ऐसी
जुग्गो बुआ शैल के ताऊ ससुर कुंवर बहादुर के घर रहने लगीं थीं,उनकी
अनाथ पोती की देखभाल करने।लोग कहते, ’’पता
नहीं वे वहां नौकरानी की तरह रह रही हैं या मालकिन की तरह। जैसे भी रह रहीं हों,
है
बड़ी ही शर्मनाक बदनामी की बात।’(पृ. 141) परिवार
के साथ लेखिका भी इसे ’’अनहोनी
निन्दनीय घटना’’ बताती
हैं,...‘‘पता नहीं
क्यों ,बुआजी
के लिए ऐसा सोचना भी गुनाह लगता है।वे कैसे ऐसा कदम उठा सकीं?‘‘(
पृ. 145 ) जमुना
बुआ भी थीं जो बारह वर्ष की कम उम्र में ही अयोग्य मन्द बुद्धि पति को विवाह के
तुरन्त बाद ठुकरा कर घर वापस आ गईं और पढ़ लिखकर आत्म निर्भर जीवन बिताया। (पृ.164)
ऐसी
सफल स्त्री अपने परिवार के लिए गर्व का नहीं शर्मिन्दगी का बायस बनी। पूरी पुस्तक
लेखिका की ऐसी दुविधाओं से भरी हुई है। समाज की हृदयहीनता,
स्त्री
की गिरी हुई स्थिति,विधवा
की दुर्गति का वर्णन करने वाली लेखिका स्वेच्छा से पुरुष मित्रों का चयन करने वाली
स्त्रियों के प्रति निष्ठुर हैं। शीला इन्द्र स्त्रियों के बेचारी होने से
असन्तुष्ट हैं पर विद्रोहिणियों के पक्ष में भी पूरी तरह नहीं खड़ी रह पातीं। हम
इस दुविधा को समझ सकते हैं, वे
79 वर्ष की हैं ,
और
अपनी पूर्ववर्ती पीढि़यों की बात कर रहीं हैं। उनकी सजगता प्रशंसा के योग्य है,
और
उनकी ईमानदारी भी जो अपनी दुविधाओं को पाठकों के सामने रखते झिझकती नहीं।
लेखिका
पड़ोस की भाभी जी का बड़ी आत्मीयता और करुणा से उल्लेख करती हैं,जिनका
एक विवाह चैदह साल की उम्र में हो गया था,पति
का मुंह देखे बगैर।जिन्होंने पति का चेहरा मृत्यु शैय्या पर देखा।जिन्होंने तीन
नन्हें बच्चों को अकेले संभालते हुए नौवीं दसवीं की पढ़ाई की। ’मैं
तो सात भांवरों का कर्ज़ चुका रही हूं।मेरा भाग्य,किसे
दोष दं?’ वे
कहतीं।ऐसी भाभी जी को अच्छी औरतों ने सुहागिनों की पूजा में नहीं न्यौता कि’’वे
अच्छी औरत नहीं हैं, उन्होंने
विधवा विवाह किया है।’’आर्य
समाज भी कितना दुविधा ग्रस्त था।’मन
के जीते जीत ’ अध्याय
शीला इन्द्र ने बड़े प्यार सम्मान और सहानुभूति से भाभी जी को ही समर्पित किया है।
वयोवृद्ध
लेखिका अपने जीवन को पलट कर देख रही हैं और सोच रही है कि मां का जीवन कितना
साधारण था, उसे
पुस्तक में शामिल करूँ या ना करूँ ,फिर
शामिल कर लेती हैं।’’ कई
बार लगा कि माँ के बारे में लिखने को कुछ भी नहीं है। किन्तु उनके बिना अपनी
पुस्तक को पूरी कैसे समझूँ।’’ ( पृ. 10 ) वे
अपनी बहन से चर्चा करती हैं’’ पहले
तो उसने भी यही राय दी कि छोड़ो मां के बारे में कुछ भी न लिखो। जिन घटनाओं के लिए
मैं बहुत भावुक हो रही थी , उसमें
से कई उसने बड़ी निर्ममता से काट कर निकाल दी।’’
( पृ. 11 ) मेरा
प्रश्न है- काट कर क्यों निकाल दीं? क्या
हम सब लोग साधारण जीवन काटते नहीं। फिर साधारण जीवन का उल्लेख इतना उपेक्षणीय
क्यों हो कि काट दिया जाय। क्या कहानियां सिर्फ असाधारण जीवनों की होती है?
शीला
इन्द्र ने जो काट दिया वह गलत किया जो कह दिया वह सही किया,
कि
यदि वे नहीं कहेंगीं तो हम सुनेंगें कैसे कि उन स्त्रियों की जि़न्दगी कैसी थी
जिन्होंने कुछ लिखा नहीं, जिनके
पास न इतनी आजादी थी न अवसर। सुनाइये कि हम सब ग़ौर से सुन रहे हैं कि उन सब की
जिन्दगियां कैसे गुजरीं या जि़न्दगियां कैसे उनके ऊपर से गुजर गईं,बेरहमी
से।
शीला
इन्द्र ने इस किताब में जीवनों के वृत्तान्त लिखे है शहरों के,शादियों
के, बारातों और
बीमारियों के। उन्होंने कर्तव्यों के वृत्तान्त लिखे है,
जि़म्मेदारी
और मजबूरियों के और उस लोक व्यवहार के भी जो निभाया गया। निभाना - माता पिता पुत्र
पुत्री , बहू
बेटी बुआ के रूप में अपनी निजी भावनाओं,कामनाओं
और इच्छाओं का दमन करके परिवार चलाना।अपने खानदान के डेढ़ सौ साल से भी ज्यादा
लम्बे इतिहास में लेखिका ने न तो आसक्तियों का चित्रण किया,
न
अनुराग का। शारीरिकता के चित्रण का तो प्रश्न ही नहीं। शीला इन्द्र ने अपने
पूर्वजों की आबरू रख ली है। उन्होंने उस आबरू की रक्षा की है जिसके लिए पूरा
मध्यवर्ग पूरा जीवन कुर्बान कर दिया करता था ,
आज
भी कर दिया करता है। इतने आत्मसंयम,तटस्थता,
और
ख़ानदान की इज्ज़त का ख़याल रखते हुए लिखी गई इस किताब का ऐतिहासिक महत्व है। यह
उस पूरी मानसिकता का प्रतीक है जिससे भारत के मध्यवर्गीय समाज का चरित्र निर्धारित
होता है।
शीला इन्द्र की यह पुस्तक आत्मकथा नहीं
उनके आत्मीय स्वजनों की कथा है। उन्होंने अपने विषय में बहुत कम लिखा है। लिखा है
तो बस एक बच्ची और किशोरी के रूप में जो कथ्य का एक पात्र है,
जिसने
उन जिन्दगियों को एक किनारे खड़े होकर देखा जो उनके पीहर की औरतों के ऊपर से गुज़र
र्गइं। वे एक तटस्थ पात्र रहीं- उनका इन औरतों की जिन्दगी में कोई हस्तक्षेप दिखाई
नहीं देता न सकारात्मक न नकारात्मक और आश्चर्य है,
न
ही भावनात्मक। उनमें एक ऐसे इतिहासकार जैसी तटस्थता है जो किसी पराये देश का
इतिहास लिखता है। वे इन कथाओं में उलझी,लिपटी,शामिल
होती नहीं दिखाई देती। वे कथाओं को सुनाती हैं ज्यों की त्यों जैसी वे घटी होंगीं।
’’ हमें बचपन में यही
सिखाया गया था कि अपने बुर्जुगों के दोषों को देखना गलत है। ........मैंने न अपने
मन से कुछ लिखा ,न
उन पर अच्छा था बुरा कहने का साहस किया। ‘‘(
पृ. 10 )मेरा
प्रश्न है- साहस क्यों नहीं किया? क्या
कोई भी लेखन बिना मूल्य बोध के पूर्ण समझा जा सकता है। परन्तु यथास्थिति के वर्णन
के आग्रह के बावजूद वयोवृद्ध लेखिका शीलाइन्द्र ने जो कहानी सुनाई है वह उन समयों ,
उन
समाजों ,परम्पराओं
और नैतिक मूल्यों के बारे में बहुत कुछ बयान कर ही देती है।
समाजों,सभ्यताओं,
संस्कृतियों,
देशों
और उनके आपसी समबन्धों और रक्तरंजित क्रान्तियों के बीच एक इन्सान कैसे जी लेता है,
व्यवस्था
और व्यक्ति कर यह द्वंद्व मेरे जीवन और मेरे कार्य का सबसे महत्वपूर्ण विषय है और
इसीलिए महत्वपूर्ण है यह पुस्तक भी । सच तो यह है कि आम औरत की कहानी न तो बहुत
पहले लिखी जाती थी , न
आज लिखी जा रही है। पहले धीरोदा,धीरललित,
धीरोद्धात और धीर प्रशान्त
नायक थे रईसज़ादे, राजे
महाराजे, और
उनके खासमख़ास। और अब ? अब
औरतंे तो वे ही ख़ास हैं जो न तो किसी गांव की हैं,
न
ही किसी शहर की ,जो
मर्दवादी भाषा में मर्दां के मनोरंजन के लिए आयोजित छद्म स्त्री विमर्श के लिए
ख़ासतौर पर गढ़ी गई हैं। यह किताब आम लोगों के बारे में है जो न सबसे अमीर थे न
सबसे ग़रीब , जो
न राजा थे, न
रंक। लिखित परम्परा में मौखिक इतिहास बयान करती हुई यह किताब साहित्य में आम औरतों
की आमद है।
पढ़े
लिखे परिवारों की पढ़ी लिखी स्त्रियां जो न दलित जाति की थीं,
न
सबसे निर्धन, जिनके
घरों में न गाली गलौज थी, न
मारपीट उनके जीवन भी कितने अभावग्रस्त थे,
कितने
नीरस, ढर्रे
पर चलते हुए, निभाते
हुए ,कर्तव्यबोध
से ग्रस्त। वे जीवन इतने निरानन्द और बेरंग क्यों थे,
लेखिका
इस प्रश्न का उत्तर नहीं देती ,वे
केवल ज्यों का त्यों बयान करती हैं। इसीलिए ऐसे जीवनों के वृत्तान्त हमारी आंखों में आंसू नहीं ला
पाते परन्तु हमारे हृदय को गहरे अवसाद से भर देते हैं ,
ऐसे
अवसाद से जो आंसुओं के साथ बह भी नहीं सकता।
-0-0-0-0-
शालिनी माथुर,
ए 5/6 कारपोरेशन फ़्लैट्स, निराला नगर,
लखनऊ
फोन 9839014660